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________________ षष्ठम परिच्छेद । [१२७ नहीं थे। अपने मनोनुकूल व्यवहार आचरण करते थे। भ० ऋषभने ही उस समयसे लिपि कलाका प्रचार किया था ।* उनने अपनी सार्वज्ञावस्थामें जो शास्त्र बताए थे वह अपने आध्यात्मिक आदि विषयों में अपूर्व थे उस समय स्त्रियोंको बड़ी उच्च दृष्टिसे देखा जाता था; अर्थात् स्त्री ही वर पसंद करती थी। और चह अपने श्वसुर गृह जाकर अलग महलमें रहती थी, क्योंकि विविध रानियोंके अला! २ रणवास होनेका उल्लेख मिलता है। जैन नीति गृह विभागकी शिक्षा इसलिये देती है कि गोत्रका प्रत्येक पुरुष उद्योगी और धर्मकर्मका पालक बनेगा, प्रथक् गृहमें स्त्री भी अपनी स्वाधीनता और कर्तव्यका अनुभव ठीककर सकेगी। परदेका रिवाज उस समय नहीं था। राजसभामें राजा महाराजा उनको अर्ध आसन दिया करते थे। उस समय संगीत शास्त्र और वीणावादनका विशेष प्रचार था। उस समयकी राज्य नैतिक पद्धति भी बड़ी उदार थी और प्रजाको यहांतक अधिकार प्राप्त था कि वह अन्यायी राजाको राज्यपदसे अलग कर देते थे। इस तरह एक प्रकारकी प्रजातंत्रक राज्य प्रणाली थी, परन्तु राजा अवश्य होते थे और शूरवीर आदि लोगोंसे उनके मुकुट बांधे जानेके कारण वे मुकुटबद्ध गजा कहलाते थे और सनस्त पृथ्वीको वश करनेवाले चक्रवर्ती कालात थे। इन लोगों की युद्ध नीति भी उत्कृष्ट थी । शरण आए हुए अथवा निहत्थं व घायल शत्रुपर वह प्रहार नहीं करते थे, बहिक जहां संभव होता था, जहां स्वयं दोनों ओरके सम्राट् आपसमें अहिंसक युद्ध कर लेने थे और ____ * देखो हि० वि० को भाग १ पृषु ६४ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035242
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1943
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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