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संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग।
उपयोग करनेका उपाय पूछा । महाराज नाभिरायने उनका डर दूर कर उपयोगमें आ सकनेवाले धान्य वृक्ष और फल वृक्षोंको बताया व इनको उपयोगमें लानेका ढंग भी बताया तथा जो वृक्ष हानि करनेवाले थे, जिनसे जीवनमें बाधा आती और रोग आदि उत्पन्न हो सकते थे उनसे दूर रहनेका उपदेश दिया ।
“वह समय कर्मभूमिके उत्पन्न होनेका समय था । उस समय लोगोंके पास वर्तन आदि कुछ भी नहीं थे, अतएव महाराजा नाभिरायने उन्हें हाथीके मस्तक पर मिट्टीके थाली आदि वर्तन स्वयं बनाकर दिये व बनानेकी विधि बताई।" नाभिरायके समयमें बालकके नाभिमें नाल दिखाई दी और उन्होंने इस नालके काटनेकी भी विधि बताई।
" हाथीके माथे पर वर्तन बनाने तथा भोजन बनाना न जानने आदिसे उस समयके लोगोंको आजकलके मनुष्य चाहे असभ्य कहें
और शायद जंगली भी कह दें और इसी परसं इतिहासकार परिवर्तनके इस कालको दुनियाका बाल्यकाल समझते हैं, पर जैन इतिहासकी
* जैनधर्मके इस कालविभाग और खगोल विद्यांक सम्बन्धम विद्वानोंका मत है कि यह सर्व प्राचीन है। डॉ० स्टीवेन्सन माहन "कल्पसूत्र"की भूमिकामें यही लिखते हैं:
“For an account of the Jain vranography and geography. I must refer the reader to the Asiatic Researches, Vol. IX. Their systems seem to have been formed before that of Brahmans, as they have but three terrestrial continents and two seas.” -(Kalpasutra and Navatattwa Intro. XXIV.) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com