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. द्वितीय परिच्छेद ।
मनु कहलाते थे । इन्होंने कई वंशोंकी स्थापना की । अतः कुलकर कहलाते थे । ' *
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तेरहवें कुलकरके कुछ ही समय बाद चौदहवें कुलकर महाराजा नाभिराय हुए । इनके समय में कल्पवृक्ष करीब २ नष्ट हो चुके थे, परन्तु इनके महल में वे वैसे ही विद्यमान थे, अतः भोगभूमिका अन्त महाराज नाभिराय के समय में होगया था और कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ था अर्थात् जीविका के लिये व्यापारादि कार्य करनेकी आवश्यक्ता हुई। इस समय के लोग व्यवहारिक कृत्योंसे बिलकुल अपरिचित थे । खेती आदि करना कुछ नहीं जानते थे और कल्पवृक्ष नष्ट हो ही चुके थे 'जिनसे कि भोजन सामग्री आदि प्राप्त हुआ करती थी', अतएव इन्हें अपनी भूख शांत करनेके लिये बड़ी चिंता हुई और व्याकुलचित्त होकर महाराज नाभिरायके पास आये ।
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यह समय युगके परिवर्तनका था । कल्पवृक्षोंके नष्ट होने के साथ ही जल, वायु, आकाश, अग्नि, पृथ्वी आदिके संयोग से धान्य वृक्षोंके अंकुर स्वयं उत्पन्न हुए और बढ़कर फलयुक्त हो गये व फलवाले और अनेक वृक्ष भी उत्पन्न हुए । जल, पृथ्वी, आकाश आदिके परमाणु इस परिमाण में मिले थे कि उनसे स्वयं ही वृक्षोंकी उत्पत्ति होगई परन्तु उस समयके मनुष्य इन वृक्षों का उपयोग करना नहीं जानते थे । इसलिए महाराज नाभिरायके पास जाकर उन लोगोंने अपने क्षुधादि दुःखको कहा और स्वयं उत्पन्न होनेवाले वृक्षोंका
* " जैन इतिहास" बाबू सूरजमलकृत पृष्ठ २५-२६ ।
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