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________________ चतुर्थ परिच्छेद । [ १२५. थे। इससे प्रकट होता है कि उस समय कृषि आदि कर्म मनुष्योंको मालूम थे । उनके पास कृषिशास्त्र, वास्तु-विद्या, शस्त्र निर्माण -विद्या आदिका पूर्ण परिज्ञान था और उसी समय ग्राम, खेट, पुर आदि भी बनाए गए थे। इससे यह भी विदित होता है कि वह लोग इधर उधर उठाऊ चूल्होंकी तरह मारे २ नहीं फिरते थे, बल्कि सुन्दर गृहादि बनाकर रहते थे और राज्यकी व्यवस्था करते थे। गेहूं, चावल आदिकी खेती करते थे, परन्तु कर्मभूमिके प्रारम्भ में चावलकी खेती स्वतः उग आई थी, उसीपर लोग बसर करते थे । पश्चात् भगवान ऋषभदेवके बतलानेपर वह सर्व प्रकारकी खेती करने लगे थे। भोगभूमि के अंत में पहिले लोग वनोपवनसे प्राप्त फलादिक पर निर्वाह करते थे, फिर भगवान ऋषभदेवके कृषि आदि कर्म बताने पर उन्होंने रोटी आदि बनाकर खाना प्रारम्भ किया था और वे पशुओं को भी पालने लगे थे। उस समयका एक प्रधान धन पशु ही थे, क्योंकि जहां पर भगवान ऋषभके पुत्र सम्राट् भरतकी राज्यसम्पदाका वर्णन है उसमें " एक करोड़ हल, तीन करोड़ कामधेनु गायें, अठारह हजार घोडे, चौरासी लाख हाथी ་་ * भी बताए हैं । इससे प्रकट है कि उस प्राचीन समयसे ही भारतमें पशुओंकी कदर चली आ रही है | भगवानने उस समय प्रजाको भक्ष्य अभक्ष्य पदाथका भी ज्ञान करा दिया था, इसलिए उस समय आर्यलोग शाकाझरी थे । शिल्पकी सब बातें भी उनको बतला दी गई थीं, जिससे वह कपड़ा बुनना, धातुको काममें लाना आदि बातें भी जानते थे । *हरि० पु० सर्ग ११ श्लोक १२८ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035242
Book TitleSankshipta Jain Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1943
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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