Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 138
________________ षष्ठम परिच्छेद। [१२३ .बल, ऐश्वर्य है वह अन्तमें छोड़ना पड़ता है इसलिए उचित है कि उनको अनुचित रीत्या नष्ट न करके आहार, औषध, अभय और विद्या दानमें खर्च किया जाय, जिससे कि यशोलाभके साथ साथ आत्मउन्नति हो । इस प्रकार गृहस्थों के मुख्य कर्तव्यों का वर्णन है जिससे वास्तविक रूपमें भाव यही है कि कषायोंको कम करते हुए आत्मा उन्नतिपथपर जावे। ___ इस प्रकार जैनधर्म एक स्वतंत्र वैज्ञानिक सैद्धांतिक धर्म है। इसके तत्व और सभ्यता पूर्णरूपमें बास्तविक हैं। इसके विषयमें यह कहना कि यह धर्म केवल साधुके लिये है, बिलकुल मिथ्या प्रगट होता है। जबसे जैनधर्म है तबहीसे उसके अनुयायी साधारण गृहस्थ श्रावक और श्राविका एवं साधुजन मुनि और आर्यिका एवं उदासीन गृहत्यागी रहे हैं और उनके चारित्र सम्बंधी नियम भी पृथक् २ हैं जैसे हम पहिले देख आये हैं। एक मजदूर और सिपाहीसे लेकर राजा महाराजा तक इस धर्मके माननेवाले हुए हैं। अपनी शक्तिके अनुसार व्रत पालनकी शिक्षा जैनधर्म देता है । इसलिये उसके चारित्र विधान देखकर घबड़ानेकी कोई जरूरत नहीं है। जैनधर्मके विषयमें यह कहना कि वह एक मिशनरी' धर्म नहीं है अर्थात् उसका प्रचार दिग्दिगान्तरोंमें नहीं किया जा सकता है, उसके सिद्धान्तोंके प्रति अनभिज्ञताको प्रगट करना है। जैन शास्त्रों में जैन साधुओंके लिए केवल वर्षाऋतु में चार महीने एक जगह रहनेका विधान है अन्यथा उनको सदैव विहार करते रहने और यथार्थ धर्मोपदेश देनेका उल्लेख है। पाठक ! आगे चलकर देखेंगे कि इसी कारण जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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