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संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग ।
'देवकी पूजा की जाती है उसे कल्पवृक्ष मह कहते हैं । बलि अर्थात् नैवेद्य आदि भेट, स्नपन आदि विशेष पूजाएं सब नित्य महादिकोंमें ही अन्तर्भूत हैं । * इस प्रकार गृहस्थों के प्रथम कर्तव्य यज्ञ पूजाका विशेष वर्णन है, जिसका भाव शुभ भावोंको उपार्जन करना मात्र है जो स्वयं प्राप्त होते हैं । यह सर्व विधान किसी इच्छा-वाञ्झाके विना शुद्ध परिणामोंद्वारा केवल भक्ति भाववश किये जाते हैं ।
दूसरे कर्तव्यमें गुरुकी सेवा करनेका उद्देश्य है । संसारमें प्रत्येक मनुष्यके कोई न कोई गुरु अवश्य होते हैं परन्तु यथार्थमें निर्ग्रन्थ गुरु सर्वश्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे ही गुरु महाराज जीवको संसारसे उवारनेवाले मार्गमें लगाते हैं। इसलिये उन्हींकी उपासना करना योग्य है। स्वाध्याय पठन-पाठन अध्ययन मनन श्रवण करना तीसरा कर्तव्य है। प्रत्येक प्राणी कुछ न कुछ अवश्य पढ़ा करता है अथवा कोई न कोई पुस्तक या काव्य सुना करता है। इसलिए आत्मकल्याणके निमित्त हमको यथार्थ जिनोक्त शास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिए जिससे ज्ञान प्राप्त हो और कर्म कलंक नष्ट हों। चौथा कर्तव्य संयम एक तोप्राणिरक्षा रूपमें हैं और दूसरे इन्द्रिय वृत्ति निवृत्ति रूपमें है। संयम पालनका उद्देश्य लौकिक निःसार सुख नहीं है किन्तु आत्मकल्याण करनेसे है । पांचवां कर्तव्य तप है जो इष्ट प्रयोजनका लक्ष्य न रखकर कषायोंके घटानेके लिए और आत्म-कैवल्य प्राप्त करनेके लिए आवश्यक है। सामायिक आदि करना ही गृहस्थोंके लिए तप है।
अन्तिम कर्तव्य दान है। जिस पुरुषके पास जो कुछ भी संपदा * देखो सागारधर्मामृत पूर्वार्द्ध ९७-९९।
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