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१२० ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । है; जैसे जल और वनस्पतिमें जीवका होना सायन्सने अब प्रगट किया है, परन्तु जैन सिद्धान्तमें उनसे पहिले ही जीवका होना बतला दिया था । आधुनिक विज्ञान जिस प्रकार सत्यांशको प्रगट कर रहा है उसके दूसरी प्रकार जैनधर्ममें पूर्ण सत्य सिद्धान्त विद्यमान हैं । इसके समान सरल वैज्ञानिक ढंगका वर्णन अन्य कहीं नहीं मिलता है।
गृहस्थ लोगोंके लिए हम इसमें एक अतीत मूल्यवान आत्मोन्नतिका क्रम पाते हैं। हम पहिले ही देखते हैं कि वही यथार्थ गृहस्थश्रावक कहलानेका अधिकारी हो सकता है जो ऊपर बताए हुए पांच व्रतोंका पालन करता है और मधु, मांस, मदिराका त्यागी होता है। इस प्रकार उसका चारित्र निर्मल होता है और वह आधुनिक सभ्यताके लिहाजसे एक उत्कृष्ट शीलवान स्वावलम्बी नागरिक होता है इसलिये ही वर्तमान जैनियोंका चारित्र भी भारतमें सर्वोच्च शुद्ध है। जैन सभ्यता इसी हेतुसे परमोच्च है। गृहस्थोंकी आत्मोन्नति दिनोंदिन उदित होनेके लिये जैनधर्म में उनके लिये छह आवश्यक कार्य बतलाए गए हैं जो उनको नित्यप्रति करना चाहिये, अर्थात् देव-पूजा, गुरुउपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान । संसारमें ऐसा कोई भी मनुप्य नहीं है जिसका कोई न कोई आराध्य देव न हो। और सर्वोत्तम पूज्यनीय परमहितैषी रागद्वेष रहित सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान ही हैं। उनका ही आराधन करना आवश्यक है। इस यज्ञ-पूजा विधानका वर्णन जैन शास्त्रों में विशेष रूपसे दिया है। ब्राह्मण वेदों में वर्णित हिंसावर्धक यज्ञ यथार्थमें नहीं है। आषवेदों में कहे हुए निम्न यज्ञ ही वास्तविक यज्ञ हैं।
जैन शास्त्रों में सबसे पहिले नित्यमह यज्ञ कहा गया है। इसमें
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