Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 133
________________ ११८ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | खुलासा यह है कि निर्वाण सच्ची श्रद्धा अर्थात् सम्यग्दर्शन ( तत्वों के विश्वास ), सच्चे ज्ञान ( तत्वोंका ज्ञान ) और सच्चे चारित्र ( शास्त्रों में बताए हुए व्रतों आदिको पालने ) से प्राप्त होता है । इस सम्यक् रत्नत्रय मोक्षमार्गका निर्माण परमात्मपद पानेके लिये हुआ है; जो जीवका निजी स्वभाव है। अनन्त जीवोंने इस रत्नत्रय भार्गका अनुसरण कर मोक्ष लाभ किया है, जो कि एक मात्र निर्वाण प्राप्तिका मार्ग है। यह मार्ग दो विभागों में विभक्त है । प्रथम सहल गृहस्थ के लिये और द्वितीय कठिन साधुओंके वास्ते । 1 गृहस्थधर्मका प्रारम्भ सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिसे होता है। जिसके पश्चात् गृहस्थ व्रत का पालन प्रारम्भ करता है और धीरे धीरे ग्यारह प्रतिमाओं को पालते हुए ऊपर चढ़ता हुआ सन्यास पदवीको पा लेता है । इस समय से उसे साधुमार्गके कठिन व्रतोंका पालना अवश्यम्भावी हो जाता है । ये ग्यारह प्रतिमाएं गृहस्थ के लिए हैं। जिनमें से हर पिछली प्रतिमा पहिली प्रतिमाकी निस्वत विशेष बढ़ी हुई और उसको अपने में सम्मिलित किए हुए है । साधुका जीवन अति कठिनसाध्य जीवन है । वह अपनेको संसारसे नितान्त विलग करके और अपनी इच्छाओं एवं विषयवासनाओंको निरोधित करके शुद्ध आत्मध्यान में लीन हो जानेका प्रयत्न करता है। इस प्रकार तप और उपवास करते हुए वह अपनी आत्माको पुद्गलसे अलग कर लेता है और कर्म और अवागमनकी जड़ उखाड़ डालता है । कर्मोंके नाश होते ही जीव सर्वज्ञ और अमर होजाता है एवं अपने स्वाभाविक आनंदसे भरपूर होजाता है, जिसमें भविष्य में कभी भी कमताई नहीं होती है। जैन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com .

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