Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 134
________________ षष्ठम परिच्छेद । [११९ धर्मके अनुसार जीवके साथ आवागमन लगा रहता है जबतक कि वह निर्वाणपद प्राप्त न करले । कुछ जीव ऐसे हैं जो कभी भी मुक्त न होंगे, यद्यपि परमात्मपद उनका भी स्वाभाविक स्थान है। इसका कारण यह है कि उनके कर्म ऐसी बुरी तरह के हैं कि उनको कभी भी रत्नत्रयकी प्राप्ति नहीं होसक्ती है, अर्थात् उन्हें कभी भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका भान नहीं हो सक्ता है ! जिनके विदून मोक्ष नहीं मिल सक्ती है । (ज्ञानकी कुंजी Key of Knowledge असहमत संगम आदिको और आर्ष जैन ग्रन्थों को पढ़नेसे) जैनधमकी सिद्धान्तशैली वैज्ञानिक ढंगकी है, यह प्रगट होजाता है, और इसी कारणसे उसमें किसी देवी देवताओं के लिए स्थान नहीं है । यद्यपि वह प्रत्येक कालमें जो अनंत समयका है, चौवीस सच्च गुरुओं अथवा तीर्थङ्करोंकी उत्पत्तिको मानता है। तीर्थङ्कर आवागमनके समुद्र के पार पहुंचनेके लिए जीवोंको योग्य मार्ग बताते हैं । ये महात्मा या महापुरुा किसी बड़े या छोटे देवताके अवतार नहीं है बल्कि मनुष्य हैं जो स्वत: भी मार्गपर चलकर परमात्मपद प्राप्त करते हैं जिसको बादमें वे दूमरोंको बताते हैं ।"* जैनधर्मकी उक्त सैद्धांतिक शैली अनादि कालसे इसी रूपमें है। वह स्वयं वैज्ञानिक सत्य है। इसलिए उसमें हिन्दू धर्मको भांति समयानुसार रूपांतर नहीं किए गए हैं, उसके सिद्धान्त संपूर्ण रूपमें पूर्ण हैं । जो सैद्धांतिक बातें उसमें वर्णित हैं, उनमेंसे बहुतसीको आधुनिक विज्ञान ( Science ) की-खोज भी प्रमाणित करती जाती __* देखो असहमत संगम पत्र ८-१३ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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