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षष्टम परिच्छेद ।
[ ११७ जीव आवागमन के चक्र में पड़े चकराया करते हैं। वारम्वार जन्मते और मरते हैं । आवागमन में चार गतियां हैं। जिनके नाम
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(१) देवगति, (२) नरकगति, (३) मनुष्यगति, (४) और तियेचगति हैं । देवगति स्वर्गवासी देवादिसे सम्बंध रखती है | नरक गतिका भाव मनुष्य जीवन से है । शेष के सब प्रकार के जीव तिर्यंचगतिमें दाखिल हैं, जैसे नभनर, जलचर, कीड़े मकोड़े, वनस्पति, पृथ्वी आदि । इन गतियों में से प्रत्येक में विभिन्न अवस्थाएं जीवनकी है, परन्तु गति चार ही हैं । स्वर्गवासी देवगण विशेष सुख और आनंदका उपभोग करते हैं; किन्तु दुःखका बिलकुल वहां भी अभाव नहीं है । नारकी जीव अत्यन्त दुःख उठाते हैं । मनुष्य सुख और दुःख दोनों भोगता है, किन्तु उसके भागमें दुःखका परिमाण विशेष है और तिर्यचगतिमें भी दुःख और तकलीफ विशेष है । बारबार जन्मना और मरना इन चारों गतियों में है । ( केनल वे ही जीव, जो आवागमनकी सीमा के बाहर होजाते हैं, सदैवका जीवन उपभोग करते हैं। ) परन्तु इस बातका भय यहां भी नहीं है कि एक जीवनका पुण्य आगामी जीवनमें न मिले। पुण्य और पापका फल जीवके साथ एक जन्मसे दूसरे जन्मको जाता है और उसीके अनुसार आगामी जन्म (जीवन) का गतिबंध होता है।
आवागमनसे छुटकारा, व्रतोंके पालने, आचार विषयक नियमोंको मानने जैसे अहिंसा, दूसरोंके प्रति क्षमा धारण करना आदिसे और शारीरिक एवं आन्तरिक तपस्या, जैसे स्वाध्याय, ध्यान, उपवास आदि करनेसे होता है । व्रत पांच हैं-अहिंसा ( किसीको पीड़ा न पहुंचाना ), सच बोलना, चोरी न करना, कुशील ( व्यभिचार ) न पालना और सांसारिक वस्तुओंकी लालसा न करना ।
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