Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 128
________________ A NNAINIKName.......Nikiwan. ........ पंचम परिच्छेद । [११३ (१४) निशिद्धिका प्रकीर्णकमें प्रमादसे जो विविध दोष उत्पन्न होते हैं उनसे शुद्ध होनेके उपाय कहे हुये हैं। इस प्रकार आर्ष वेदों का पूर्ण विवरण जो 'श्रुत' कहलाते हैं इनका पूर्णरूपमें अथबा एकदेशमै उपदेश - करनेवालों की संख्या तीन प्रकार हैं । अर्थात्: १-तीर्थंकर और केवली-सर्वज्ञ भगवान । २-गणधर और श्रुतकेवली, जो श्रुतको पूर्ण रूपसे जानते हैं । वे अंग पूर्वोकी व्यवस्था करते हैं। इनके केवलज्ञानको छोड़कर चारों प्रकारका ज्ञान होता है । (३. आरातीय अर्थात् वह साधु जो श्रुतकेवलीकी तरह उपदेश और शिक्षा देते हैं । यह १० वैकालिक आदिके कर्ता भी होते हैं। इनको आचार्य भी कहते हैं ।* हम पहिले ही कह चुके हैं कि यह आर्षवेद-श्रुति कुशाग्रबुद्धि मुनिवरोंद्वारा स्मृतिमें रक्खे जाते थे। परन्तु बड़े खेदका विषय है कि ज्यों ज्यों कालदोष बढ़ता गया त्यों त्यों स्मरणशक्तिका लोप होता गया और इस तरह पूर्ण रूपमें श्रुतकी प्राप्तिका अभाव होगया। भगवान महावीरके मोक्ष जानेके बाद ६८३ वर्ष पश्चात् अवशेष श्रुत लिपिबद्ध कर लिये गये और उसीके अनुसार विविध मुनिवर आचार्योंने ग्रंथोंकी रचना की, जो आज हमको प्राप्त हैं, जिनका विशद वर्णन हम अगाड़ी करेंगे। सामान्यतया उनमेंके मुख्य २ ग्रन्थ इस प्रकार हैं: * देखो “तत्वार्थवत्रजी " S. B. I. Vol. II P. 28-38. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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