Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 117
________________ १०२ ] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग | आर्षवेद ही यथार्थ में भगवद्वाणी हैं, और वह किन्हीं अंशोंमें आज भी हमको प्राप्त हैं । इन आवेदोंकी गिनती मुख्यतयां चारसे ही की जायगी अर्थात् वह चार ही हैं । (१) द्रव्यानुयोग, (२) करणानुयोग, (३) चरणानुयोग और ( ४ ) प्रथमानुयोग | यह सब श्रुति कहलाते हैं, क्योंकि यह सर्वज्ञ भगवानकी दिव्यध्वनि द्वारा कर्णगोचर होकर उन भगवान के मुख्य गणधर ( जो अवधिज्ञानी होते हैं ) द्वारा प्रतिपादित किये जाते हैं । ' श्रुति अथवा दैवी वाणीका यथार्थरूप सामान्यतया इसप्रकार समझना चाहिये 9 (१) उसकी उत्पत्ति सर्वज्ञ तीर्थंकर द्वारा होनी चाहिये । ( २ ) वह किसीके द्वारा खण्डन न की जा सके। (३) पूर्वापर विरोध रहित हो । ( ४ ) सर्व हितकारी हो । ( ५ ) यथार्थ तत्वोंके स्वरूपको वास्तविकरूपमें प्रकाशित करनेवाली हों। (६) और उसके द्वारा आत्मा सम्बन्धी समस्त शंकाएं निर्मूल हो जाती हों । उक्त आर्षवेद इसी प्रकारके हैं, और उनकी भाषा 'अर्धमागधी' समझनी चाहिये । भगवान ऋषभनाथके निर्वाण होनेपर पचास लाख कोटिसागर वर्ष तक संपूर्ण श्रुतज्ञान अविछिन्न रूपसे प्रकाशित रहा । अनंतर दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ भगवान हुये। उनके पश्चात् भी श्रुतज्ञान अस्ख। लित गति से चलता रहा । एवं पीछे भगवान पुष्पदन्तके समय तक समस्त श्रुत अव्यवहित रूपेण प्रकाशित रहा । इनके पश्चात् भगवान शांतिनाथ तक श्रुतविच्छेद होता रहा था । परन्तु श्री शांतिनाथ से वर्द्धमान तीर्थंकर पर्यन्त श्रुतका विच्छेद नहीं हुआ । कुशाग्रबुद्धि यतिवरों द्वारा ज्योंका त्यों प्रकाशित रहा । 18 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com :

Loading...

Page Navigation
1 ... 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148