Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 116
________________ [ १०१ पंचमः परिच्छेद । WWW BAS पञ्चम परिच्छेद । आर्षवेद अर्थात् द्वादशांग वाणी । इस युगमें आर्य जातिकी सबसे प्राचीन पुस्तकें वेद हैं । वे महान पवित्र और सर्वज्ञ वाक्य हैं। परन्तु वे आज हमको पूर्णरूपमें प्राप्त नहीं हैं। जो पुस्तकें आज वेदोंके नामसे विख्यात हैं वह यथार्थमें आर्ष वेद नहीं हैं, बल्कि ब्राह्मण वर्णके विविध समयके विशेष ऋषियों द्वारा संकलित विविध अनुष्ठान मंत्र एवं आत्मगान हैं। उनकी उत्पत्ति एकदम एक समय नहीं हुई थी, बल्कि समयानुसार जिस जिस बातमें बढ़ ब्राह्मणधर्म, आर्पप्रणीत सनातन आर्यधर्म ( जैनधर्म ) से अलग होता गया उस उस ही प्रकार वह अपनी आवश्यकतानुसार अपने वेदों आदि की उत्पत्ति अपने मतकी पुष्टिके लिए करता गया । इस विषयका उल्लेख प्रस्तावनामें किया जा चुका है । वस्तु - स्वरूपकी यथार्थ दृष्टिसे कहें तो आर्षवेद ( जैनियोंकी द्वादशांग वाणी ) अनादिकालसे है, क्योंकि सत्य अनादिनिधन है और उसका कभी लोग नहीं होता । कहीं न कहीं वह अवश्य विद्यमान रहता है, चाहे प्रगटरूपमें हो अथवा अप्रगटरूपमें। वैसे इन आर्षवेदोका निरूपण इस युगमें सर्व प्रथम भगवान ऋषभदेवने किया था, जो सकल ( सशरीर ) परमात्मा थे । अर्थात् सर्वज्ञ थे । इसलिये + हिन्दुओंके वेद ईश्वरप्रणीत नहीं हैं यह बात बौद्धोंके करीब दो हजार को प्राचीन ग्रन्थ 'तेविज्यत्त' से प्रमाणित है। वहां उन्हें ऋषिप्रणीत प्रगट किया है । ( See The Dialogues of Buddha P. 304) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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