Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 118
________________ पंचम परिच्छेद । [ १०३ " ! भगवान वर्द्धमानके गणधर श्री इन्द्रभूति ( गौतमने) भगवानकी वाणीको तत्वपूर्वक जानकर उस श्रुतिकी अंग और पूर्वो में युगपत् रचना की, जो अपने रूपमें भगवान वर्द्धमान ( महावीर के मोक्ष जानेके बाद ६८३ वर्ष तक रही। ( श्री इन्द्रनंद्याचार्यकृत श्रुतावतार कथासे) और वह गुरुपरम्परासे कण्ठस्थ ही चली आयी थी । * परन्तु पश्चात् कालदोष से मुनिवरोंकी स्मरणशक्तिका अभाव होता गया, तत्र आगम * बे० चम्पतरायजी जैन ने अपनी पुस्तक Practical Path" में इस विषय में लिखा है कि " जैन सिद्धान्त अर्थात् श्रुति ( आर्षवेद ) भी (ब्राह्मण) वेदोंके समान मनुष्योंकी स्मृतिमें रहे थे और बे लिपिवर्द्ध अंतिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर के निर्वाण होनेसे कई शताब्दियों के पश्चात् किए गए थे। मेक्षमूलर साहब भी इससे सहमत हैं। उनका कहना है कि प्राचीन कालमें भारतवर्ष में साहित्य जबानी ही याद रक्खा जाता था । टैल (Tiele ) साहबके मतानुसार 'भारतवर्ष में लिपि कलाकी जानकारी तीसरी शताब्दीके पहिलेसे विद्यमान थी, परन्तु उसका व्यवहार साहित्य में पहिले तो होता ही नहीं था और होता भी था तो कभी कभी । ' मि० जे० एम० रॉबर्टसन साहब लिखते हैं कि ' यह सब (साहित्य) प्राचीनकालसे जवानी ही एक दूसरेको बतला दिए जाते थे । और अक्षरोंकी अनावश्यकता से कोई हानि भी नहीं हुई। अधिकतर प्राचीन अलिखित शास्त्र ऐसी शुद्धता से दूसरों को बतला दिए जाते थे, जैसे शुद्ध लिखित शास्त्र | यह इस कारण था कि पहिली अवस्थामें याद करानेका एक प्रधान नियम था, फिर दूसरोंमें लिपिकर्ता द्वारा विशेष त्रुटियां तथा घटाव बढ़ाव किए जाने लगे और कंठस्थ करनेकी रीति भी जीवित रही। वर्तमान समय तक ब्राह्मणोंके बालकों का वेद कंठस्थ उसी प्रथानुसार कराये जाते हैं । जैनियोंमें भी सन्तानकी प्रथम शिक्षा भगवत् स्तोत्रोंके कंठस्थ करानेसे प्रारम्भ होती है । पहिले ही पहिले जैन बालकोंको " पंचकल्याणक मंगलपाठ कंठस्थ कराया जाता है । कहीं कहीं तो जैन बाइबिल – तत्वार्थसूत्र और M Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com 66

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