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तृतीय परिच्छेद ।
[७९ उसी दिन भरतने आकर उनकी पूजा की और उनको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई। इस हर्षोपलक्षमें ही भरतने और देवोंने उनकी पूजा की थी। तब बाहुबलिने पृथ्वीपर विहार कर धर्मका उपदेश दिया और अन्तमें कैलासपर्वतसे मोक्षको प्राप्त हुए । ____ बाहुबलीके दीक्षित होजानेपर भरतने अयोध्या में प्रवेश किया था
और फिर वहां देवों एवं राजा महाराजाओं द्वारा भरतका राज्याभिषेक किया गया । इस समय भरतने बड़ा भारी दान किया था। भरतकी आज्ञामें ३२००० मुकुटबद्ध राजा और ३२००० ही देश थे और १८००० आर्यखण्डके म्लेच्छ राजा आज्ञामें थे। भरतकी ९६००० रानियां थीं। उनमें मुख्य सुभद्रा थी। भरतके मेनापत्तिका नाम अयोध्य, पुरोहितका नाम बुद्धिसागर, गृहपतिरत्नका नाम कामवृषि और सिलावट रत्नका नाम चन्द्रमुख, हाथीका नाम विजयपर्वत, घोडेका नाम पवनंजय था। भरतने अपनी लक्ष्मीका दान करनेके लिए ब्राह्मणवर्णकी स्थापना की थी। इनकी विभूति एवं संपदा अपूर्व थी। भरतको सोलह दुषस्वप्न हुए थे जिनका भाव भगवान ऋषभदेवने भविष्यमें जैनधर्मकी हीनता बताया था।
भरत बड़े धर्मात्मा, भव्य और तपस्वी थे। उन्होंने कैलाशपर्वतपर रत्नमय बहत्तर जिनमंदिर बनवाये थे। उन्होंने दंडविधानमें भी परिवर्तन कर दिया था—भरतने प्राणदंड. देशनिकाला, कैद आदिकी सजाएं रक्खी थीं; वे बड़े न्यायी थे। उस समय समम्त प्रजा बड़ा आनन्द भोगती थी। __ एक दिन सम्राट भरत दर्पणमें अपना मुख देख रहे थे कि उनको
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