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तृतीय परिच्छेद।
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आठ आठ सौ गांव, द्रोणमुख गावोंके आधीन चार चार सौ और खर्वटोंके आधीन दो दो सौ रक्खे गये।
उस समय भगवानने शूद्रोंके दो भेद किये-एक कारु और दूसरा अकारु । धोबी, नाई वगैरह कारु कहलाते थे। इनसे भिन्न अकारु । कारु शूद्रोंके भी दो भेद किये गये, एक स्पृश्य-छूने योग्य, दूसरे अस्पृश्य-न छूने योग्य । स्पृश्योंमें नाई वगैरह थे और जो प्रजासे अलग रहते थे वे अस्पृश्य कहलाते थे।
' इस प्रकार कर्मयुगका प्रारम्भ भगवान ऋषभने आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदाको किया था। इसलिये वे कृतयुग-युगके करनेवाले हैं। और इसी लिये उस समय प्रजा आपसे विधाता. सृष्टा, विश्वकर्मा आदि कहा करती थी।'
इस युगके प्रारम्भ करनेके बाद भगवान ऋषभ सम्राट् पदवीसे विभूषित किये गये और उनका राज्याभिषेक किया गया। सब क्षत्रिय राजाओंने भगवानको अपना स्वामी बनाया। महाराजा नाभिरायने भी भगवानको राज्यका स्वामी बनाया था । सम्राटपद पानेके अनंतर भगवानने व्यापारादिके एवं शासनके नियम बनाए । भगवानने क्षत्रियोंको शस्त्र चलानेकी शिक्षा स्वयं दी थी और वैश्योंके लिये परदेश गमनका मार्ग खुला करनेके लिये स्वयं विदेशोंको गये। और स्थल यात्रा व जल यात्रा, समुद्र यात्रा प्रारम्भ की। * भगवामने उस समय विवाह के नियम भी बना दिये थे। प्रगट कर दिया था कि शूद्र शूद्र
* सू० म०का जे. इ० भाग १ पृष्ठ ३९-४१ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com