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तृतीय परिच्छेद ।
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"राजा भरतने उस समय अपने पुत्रकी उत्पत्ति, चक्ररत्नकी प्राप्ति और भगवानको केवलज्ञानकी प्राप्ति, ये तीन शुभ समाचार सुने. परन्तु वे सबसे पहिले कुरुवंशीय, भोजवंशीय आदि अनेक राजाओं
और चतुरङ्ग सेनासे वेष्टित हो. भगवान ऋषभदेवकी वंदनाके लिये गये और वहां भगवानकी भक्तिभावसे पूजा की । तालपुरके स्वामी राजा वृषभसेन भी समवशरणमें आये और संयम धारण कर भगवानके प्रथम गणधर होगये। अतिशय धीर भगवान ऋषभदेवकी पुत्री ब्राह्मी
और सुन्दरीने अनेक स्त्रियोंको दीक्षा धारण कराई और समस्त आर्यिकाओंकी अग्रेसरी होगई ।....भगवानके समवशरणमें मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, यह चार प्रकारका संघ मौजूद था। चारों निकायके देव थे। भगवानके समवशरण (मभाग्रह ) की रचना बारह योजनपर्यंत ( इन्द्रद्वारा ) की गई थी । भगवानके समवशरणमें बड़े २ बारह कोठे थे। उनमें भगवानकी दाहिनी ओर पहिले कोठेमें ही तो मुनिराज बिराजमान थे, दूसरे कोठेमें कल्पवासी देवियां, तीसरेमें आर्यिका, श्राविका और अनेक म्रियां । * चौथमें ज्योतिषी देवोंकी देवियां, पांचवीं सभामें व्यन्तर देवोंकी स्त्रियां । छठीमें भवनवासी देवोंकी देवांगना. यातवमें भवनवासी देव, आठवीमें व्यंतरदेव, नवमी सभामें
___*त्रियों को जो देयदृष्टिसे देखते हैं उन्हें ध्यान देना चाहिये कि स्वयं भगवानकी सभाम स्त्रियों का इतना मम्मान था कि उनको माधारण पुरुषोंसे पहिले स्थान दिया गया था। न ही मनुष्योंके कोठेमें ऊँच नीचका कोई भेद नहीं किया है । इससे प्रगट हैं कि चांडाल आदि जीवोंसे भी द्वेष नहीं किया जाता था। उनको भी भगवानके उपदेशको सुननेका हक प्राप्त था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com