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७४] संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग । ज्योतिषी देव, दशवी सभामें कल्पवासी देव, ग्यारहवीमें चक्रवर्ती आदि मनुष्य और बारहवीं सभा में तिर्यच बैठे।"
भगवान् ऋषभदेव इस ही समवशरणके मध्य वेदिकामें सिंहासनके ऊपर अधर विराजमान रहते थे और उनके ऊपर तीन रत्नमयी छत्र लगे थे एवं चौसठ चमर दुलंते थे। भगबानकी इस सभामें किसीके लिए आने जानेकी रोकटोक नहीं थी । हरकोई वहां आकर भगवा नका उपदेश सुन सक्ता था । पशु भी वहांपर धर्मोपदेश सुनते थे। गर्जकि भगवानकी दृष्टिमें साधारण और विशेष सब जीव समान थे।
और भगवानका दिव्य प्रभाव इतना था कि पशुओंने अपने आपसी कुदरती वैरको भी छोड़ दिया था।
भगवानका उपदेश विना इच्छाके ही प्रतिदिन तीनवार हुआ करता था और उसको समस्त प्राणी अपनी २ भाषामें समझ लेते थे। उसका उच्चारण अक्षररहित; विना दांत और ताल आदिमें क्रिया हुए ही होता था। वह आत्माकी अन्तरध्वनि थी- अहंनाद' था । आत्माकी वह · अपनी बोली ' योगका चमत्कार था। भगवानके उपदेशको सुनकर धारण करनेवाले गणधर होते हैं। भगवानके मुख्य गणधर- वृषभसेन थे। सभामें प्रत्येक मनुष्य प्रश्न कर सकता था। किसीके लिए कोई मनाई नहीं थी। इसी समामें भगवानने आत्माके स्वाभाविक धर्म जैनधर्मका प्रकाश किया था। सार्वभौम चक्रवर्ती नृप भरतने भगवानसे सबसे अधिक प्रश्न किए थे। कुरुदेशके राजा सोमप्रभ और श्रेयांस भी दीक्षित होकर भगवानके गणधर हो गए थे।
। हरि० पु० सर्ग ९ श्लोक २१२-१३-१६-२०-२१-२२ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com