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तृतीयः परिच्छेदः ।
[७५ शकट वनसे उठकर भगवान्ने फिर विहार किया था और कुरुजांगल, कौशल, सुदन, पुंड, चेदि, अंग, बंग, मगध, अंध्र, कलिंग, भद्र, पञ्चाल, मालव, दशार्ण, विदर्भ आदि अनेक देशोंमें विहार कर अपने उपदेशामृतसे जगतका कल्याण किया था । भगवान् जहां जहां जाते थे वहां वहां ऊपर कहे मुताविक समवशरण बन जाता था। जब भगवान विहार करते थे तब उनके आगे २ धर्म-चक्र, और देवोंकी सेना चलती थी। आकाशसे जय जय शब्द होते जाते थे। भगवानके. चरणोंके नीचे देवगण कमल रचते जाते थे । भगवान् पृथ्वीसे बहुत ऊंचे अधर चलते थे। ___भगवान्के भरत और बाहुबलि पुत्रोंको छोड़कर बाकी सब पुत्रोंने दीक्षा लेली थी। भरतने ब्राह्मण नामक चौथा वर्ण भी स्थापित किया था। उसके विषयमें उन्होंने भगवानसे पूछा था और जाना था कि चतुर्थकालमें इस वर्णसे लाभ होगा परन्तु पंचमकालमें यह वर्ण जैनधर्मका द्रोही बन जायगा। ___“ भगवान ऋषभदेवका शिष्य यों तो विश्व ही था " परन्तु. आपकी सभाका चतुर्विधि संघ इस प्रकार था:
८४ गणधर, ४७५० चौदहपूर्वके पाठी मुनि, ४१५० शिक्षक मुनि, ९००० अवधिज्ञानी मुनि, २०००.० केवलज्ञानी मुनि, २०६०० विक्रियाऋद्धिके धारक साधु, १२७५० मन:पर्यय ज्ञानके धारक मुनि. १२७५० वादी साघु-कुल ८४०८४ मुनि और ३५०००० ब्राह्मी आदि आर्यिकाएं, ३००००० श्रावकके व्रतोंको धारण करनेवाले श्रावक, ५००००० सुवृता आदि श्रावकाएँ ।
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