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तृतीयः परिच्छेदः ।
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उसमें लिखा है कि " ऋषभदेवने अपने ज्येष्ठपुत्र भरतको राज्य सौंप परमहंस धर्म .... के लिये संसार त्याग किया था । उसी समय उन्होंने दिगम्बर वेश में .... ब्रह्मावर्तसे पैर बढ़ाया । ऋषभदेवने मौनव्रत पकड़ा था ।.... ऋषभदेव स्वयं भगवान और कैक्ल्यपति ठहरते हैं। योगचर्या उनका आचरण और आनन्द उनका स्वरूप है । "X
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भगवाननं छह महीने तक बड़ा ही कठिन तप किया । भगवानकी जटाएं बढ़ गई थीं । भगवानकी शांतिका प्रभाव वनके पशुओं पर यहां तक पड़ा कि वे आपसी विरोधभाव भी छोड़ चुके थे । छह मास पूरे होजानेपर भगवान आहारके लिये नगरोंमें गये परन्तु
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x भागवत ५ - ४, ५, ६ अ० भागवतमें यद्यपि भगवानकी जन्मादि सम्बन्धी ठीक लिखी हैं परन्तु आपसी प्रतिस्पर्धा के कारण उनके धर्मके विषयमें ऊटपटांग लिखा है । जैनियोंका श्वेताम्बर सम्प्रदाय भी ऋषभदेवके दिगम्बरत्वको स्वीकार करता है । यद्यपि वह अन्तिम तीर्थंकरको छोडकर शेषको सवत्र बतलाता है, जो यथार्थता के विपरीत है जिसके विषयमें द्वितीय भागमें विचार किया जायगा । भगवान् ऋषभ और महावीरजी के विययमें उसके मान्य ग्रन्थ ' कल्पसूत्र' में स्पष्ट लिखा है कि यह दोनों तीर्थकर अचेलक - नन दिगम्बर थे। डॉ० स्टीवेन्सन उस अंशका अनुवाद इस प्रकार करते हैं:
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' 1. What then, is meant by Achelakya ? He who is without Chela, that is to say, clothing, it is Achelakka and the abstract noun Formed from that is Achailakya ( Unclothedness ). Achailak ya is the attribute of Rishabha and Mahavira alone of all the princisal yatis." (Kalpasutra p. 3.) अतएव यह स्पष्ट है कि भगवान् ऋत्रभने दिगम्बरी दीक्षा धारण की थी ।
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