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संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग।
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कन्यासे, वैश्य वैश्य और शूद्र कन्यासे एवं क्षत्रिय क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र कन्यासे विवाह करे । x
इससे प्रकट है कि उस समय केवल वर्णभेद था । जातिभेद नहीं था। और यह भी एक विशेष उल्लेखनीय बात थी कि अपने वों की आजीविका छोड़कर दूसरे वर्णों की आजीविका कोई नहीं कर सकता था। भगवानकी दण्डनीति भी उनके पिताके समान हा, मा और धिक्कार थी, क्योंकि आपके समयकी प्रजा भी बड़ी सरल शांत और भोली थी। भगवानने हरि. अकंपन, काश्यप और सोमप्रभ, इन चार राजाओंको एक एक हजार राजाओंके ऊपर नियत किया और इनका पद महामण्डलेश्वर स्क्खा । इन्होंने ही क्रमसे हरि, नाथ, उप
और कुरुवंशोंकी स्थापना की थी। उस समयका कर भी अति अल्प था। सबसे पहिले भगवानने ईखके रसको संग्रह करनका उपदेश दिया था. इसलिए भगवान और उनका वंश इक्ष्वाकु कहलाया। भगवानने अपने पुत्रोंको भी राज्य बांट दिया था। इस प्रकार भगवानका यह सम्पूर्ण समय परोपकारमें गया था।
हमारे उपर्युक्त वर्णनकी पुष्टिमें हिन्दुओंका भागवत विशेष साक्षी रखता है। उसमें भगवान ऋषभनाथका वर्णन करीबर जैनमतानुसार दिया हुआ है। 'भागवतके मतसे ऋषभदेव भगवानका आठवां अवतार है (१-३-१३) वह लोक, वेद ब्राह्मण और गौ सबके परम
x श्री जिनसेनाचार्यने ही आदिपुराणमें ऐसा उल्लेख किया है; यद्यपि कथा-अन्योंके अध्ययनसे विदित होता है कि भगवान महावीरजीके समय तक अनुलोम विवाह चारों वर्गों में ही परस्पर चालू थे। ऊंच नीचका कम ख्याल था ।
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