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द्वितीय परिच्छेद ।
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दृष्टिसे उस समयके लोग असभ्य या जंगली नहीं थे क्योंकि वह समय परिवर्तनका था। जिस तरह एक समाजके मनुष्योंको दूसरी समाजके चालचलन अटपटे मालूम होते हैं और उनका अच्छी तरह संपादन नहीं कर सकता, उसी प्रकार भोगभूमिके समयके-ऐसे समयके जिसमें कि भोग उपभोगके पदार्थ स्वयं प्राप्त होते थे-रहनेवालोंको यदि ऐसा समय प्राप्त हो जिसमें कि स्वयं मिलना बंद हो जाय तो उन्हें अपना जीवन निर्वाह करना कठिनसा हो जायगा और वे जो कुछ उपाय करेंगे वह अपूर्ण और अटपटासा होगा। ऐसा ही समय महाराज नाभिरायके सन्मुख था, अतएव यह समयका प्रभाव था। इसलिये जैन इतिहास उस समयके मनुष्योंको असभ्य नहीं कह सकता। न वह जगतका बाल्यकाल था किन्तु कर्मभूमिका बाल्यकाल था। उस समय जीवन-निर्वाहके साधन बहुत ही अपूर्ण थे।"x
महाराजा नाभिरायके अतिशय रूपवान, महान पुण्यवान एवं विद्वान् महषी मरुदेवी थीं। इन्हींके पवित्र गर्भसे प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेवका जन्म हुआ था, जिन्होंने कर्मभूमिकी प्रवृत्ति की थी
और धर्षका मार्ग सबसे पहिले दर्शाया था। अस्तु, प्रकृत इतिहासका वास्तविक वर्णन यहांसे ही प्रारम्भ होता है, जिसका समावेश हमारे इतिहासके प्रथमभागमें होता है।
x देखो बाबू सरजमलका “जैन इतिहास" भाग १ पृष्ठ २३-२४. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com