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तृतीय परिच्छेद ।
[ ५९. स्वयंभू स्तोत्र में भी समन्तभद्राचार्यजी तीर्थंकर भगवान के विषय में क्या ही उत्तम कहते हैं:-" येन प्रणीतं पृथु धर्मतीर्थ, ज्येष्ठं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखं । ” इन २४ तीर्थंकरोंमेंसे २२ तो इक्ष्वाक् वंशके थे, १ हरिवंशके थे और १ काश्यपीय नाथवंशके थे । *
श्री ऋषभदेव ।
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इन २४ तीर्थंकरों में सर्व प्रथम भगवान ऋषभदेव थे। ये १४ वें कुलकर नाभिरायके पुत्र थे और कर्मभूमिके प्रवर्तक और धर्मतीर्थ सर्व प्रथम संस्थापक थे । इनके जन्म से १५ महिने पहिले ही पुण्य प्रभावकी महानता से महाराजा नाभिराय और रानी मरुदेवीके रहनेके लिए देवोंने विशाल अयोध्यापुर नगर बसाया था और उसमें एक सुन्दर राजमहल बनाया एवं तब हीसे वहां इन्द्रोंने रत्नोंकी वर्षा करना प्रारम्भ की थी । भगवानके पिताके राजमहलके विषय में श्री हरिवशपुराण में लिखा है कि " राजा नाभिके मंदिरका नाम सर्वतोभद्र था । यह सर्वतोभद्र अनेक स्वर्णमई स्तंभोंसे व्याप्त, भांति भांति की मणिमयी भित्तियों से शोभित, पुष्पोंकी माला, मूंगोंकी माला एवं मोतियोंकी मालासे रमणीय चौतर्फी विशाल था । इसमें इक्यासी खने थे एवं उत्तमोत्तम प्राकार ( परकोटा ) बावड़ी और उपवनोंसे इसकी शोभा विचित्र ही दिख पड़ती थी ॥ ८ ॥ ३-४ ॥”
* इक्ष्वाक् वंशमें प्रारम्भसे ही जिनधर्मका प्रचार रहा है । कवि सम्राट् कालिदास भी इस ही बातकी पुष्टि करते हैं। उन्होंने लिखा कि रघुगण जो इक्ष्वाक् वंशके ' थे उन्होंने प्रारंभिक जीवनमें राजभोग कर अन्तमें साधु . हो तपस्याके बल मुक्ति प्राप्त की है ।
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