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तृतीय परिच्छेद। .. [६१ विविध दिकमारियोंने यथाविधि भगवानका समस्त उत्पत्ति समयका 'कर्म किया था। भगवानके जन्म प्रभावसे तीनों लोकके देवोंके आसन कंपायमान हुए थे, जिससे उन्होंने भगवानका जन्म हुआ जानकर महोत्सव मनाया था। इन्द्रने अयोध्यामें आकर इन्द्राणी द्वारा बालक भगवानको मंगाया। उनके रूपराशिको देखनेके लिए उसने एक हजार नेत्र बनाए पश्चात् हाथीपर बैठाकर वह उन्हें मेरुपर्वतपर लेगया । इस समय अन्य देव भगवानपर चमर छत्र लगाए साथ २ चल रहे थे। मेरुपर्वतपर पांडुकवनमें एक रत्नमई पांडुकशिला है उसपर भगवानको बिराजमान किया था और क्षीरसमुद्रके जलसे उनका अभिषेक किया था। पश्चात् इन्द्रने वस्त्राभूषण पहिनाकर भगवानको अयोध्या .वापिस लाकर माता पिताके सुपुर्द किया । उन्होंने भी विशेष उत्सव मनाया था। इन्द्रने उस समय नृत्य गानयुक्त आनंद नाटक भी किया था।
भगवान ऋषभदेव धर्मके सबसे पहिले बतलानेवाले थे, इसलिए इन्द्रनं उनका नाम “वृषभनाथ" रक्खा था। इसके अतिरिक्त इनके गर्भ में आनेके पहिले माताने स्वप्नोंमें सबसे अखीर एक बैल देखा था, इसलिए इनके मातापिता भी इन्हें वृषभ कहकर पुकारा करते थे। भगवानकी बाल्य अवस्थामें देव-देवियां उनकी सेवा किया करती थीं । भगवान बालक बड़े ही सुन्दर और सौम्य थे। वे जन्मसे ही मतिज्ञान (मानसिक ज्ञान) श्रुतज्ञान (शास्त्रज्ञान) और अवधिज्ञान (पूर्वजन्म आदिकी बातें जानना) इन तीन ज्ञानोंके धारक थे। बालकपनेमें देवगण इनके साथ बालरूप धारकर खेला करते थे।
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