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प्रस्तावना। .........
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लिये द्राविड़ कहा गया है " राज्यशासनमें था, और वहां वृक्ष, सर्प
और लिङ्ग पूजाका प्रचार था, किन्तु उस समयमें भी उत्तरीय भारतमें एक प्राचीन और अत्यन्त संगठित धर्म प्रचलित था, जिसका सिद्धान्त सदाचार और कठिन तपश्चरण उच्च कोटिका था, अर्थात् जैनधर्म जिसमेंसे ब्राह्मण और बौद्धधर्मके पुराने तपस्वियोंके आचार स्पष्टतया उद्धृत किये गये हैं।
(देखो-" Short Studies in the Science of Comparative Religion pp. 243-244.")
फिर प्रो० बील और सर हेनरी रोलिन्सन प्रमाणित करते हैं कि म० बुद्धके द्वारा बौद्धधर्मकी उत्पत्ति होनेके बहुत पहिले मध्य ऐशिया में एक ऐसा धर्म प्रचलित था जो बौद्धधर्मसे मिलता जुलता था । जैनधर्मकी बौद्धधर्मसे सदृश्यता सर्वप्रगट ही है। इसलिए यह जैनधर्म होना संभवित है। . इसके अतिरिक्त यदि हिंदू शारोंका और अध्ययन किया जाय तो उनसे बराबर जैनधर्मके अस्तित्वका पता चलता है। हिंदुओंके निकट वेद ही प्राचीन ग्रन्थ हैं। उनमें भी जैन महापुरुषों का उल्लेख उपलब्ध है। यह प्रायः सर्वमान्य है कि जैनियोंके आप्तदेव · अईत' अथवा 'अर्हन्' नामसे प्रसिद्ध हैं। बौद्धोंने भी इस शब्दका व्यवहार किया है, किन्तु आप्तदेवके स्वरूपमें बौद्धोंने इस शब्दका प्रयोग नहीं किया है। एक खास तरह के साधुओंको बौद्ध अर्हत' कहत हैं।' अतः बैनी ही अपने आप्तदेवको ‘अर्हत् ' कहकर पुकारते हैं। इन्हीं
१-इंडियन हिस्टारोकल कार्टरलो भा० ३ पृष्ठ ४७३-४७५- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com