________________
::
.. प्रस्तावना :
[७
मुझते चापि श्रमणा भुलते तथा।" श्रमण शब्दका अर्थ भूषण टीकामें दिगम्बर साघु किया गया है। "श्रमणा दिगम्बराः श्रमणा वातवसनाः"*
जैन शास्त्रों में तो राजा दशरथ और महाराज रामचंद्रको जैनधर्मानुयायी लिखा है। अतएव उस प्राचीन समयमें भी जैनधर्मकी विद्यमानता प्रगट होती है।
तिसपर शाकटायनके अनादिसूत्रमें " इण सिज् जिदीकुष्यक्यिोनक् " सूत्र २८९ पाद ३ है । इसका अर्थ सिद्धान्त-कौमुदीके कर्ताने “जिनोईन् " किया है। जिसका भाव जैनधर्मके संस्थापकसे है। क्योंकि हिन्दु धर्मके ग्रन्थों में जैनधर्मके संस्थापकका उल्लेख सर्वत्र " जिन" व "अन् " किया गया है.। यह शाकटायन निरुक्तके कत्ता यास्कके पहिले हुए थे। और यास्क पाणिनीसे कितनीक शताब्दियां पहिले हुए, जो महाभाष्यके कर्ता पातञ्जलिके पहिले विद्यमान थे। अब पातञ्जलिको कोई तो ईसासे पूर्व २री शताब्दिका बताने हैं और कोई ईसासे पूर्व ८ वीं या वीसवीं शताब्दीमें हुआ बतलाते है, १ किन्तु हम देखते हैं कि शाकटायनका उल्लेख ऋग्वेद और शुक्ल यजुर्वेदकी प्रतिसाख्योंमें और यास्कसे निरुक्तमें है। इस प्रकार ऋग्वेदादिके समयमें शाकटायन विद्यमान थे, यह प्रमाणित होता है । इसलिए मानना होगा कि जैनधर्मका अस्तित्व शाकटायनके समयमें अथवा उससे पहिले भी था अर्थात् ईसासे २००० वर्ष पहिले भी जैनधर्म प्रचलित था।
*See The Jain Itihas Series, Pt I. pp. 10–13. x Ibid. 14. 1. See History & Literature of Jainism. pp. 10
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ____www.umaragyanbhandar.com