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संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग।
क्षत्री नृप सनतकुमारके दरबारमें आत्मविद्या में सिद्धहस्त होनेकी जिज्ञामासे गए थे। वहां नारदने कहा कि “ यद्यपि मैं वैदिक शास्त्रों में पारङ्गत हूं परन्तु मैं अभी अपने ज्ञानको अपरिपूर्ण समझता हूं" क्योंकि कुरुपाञ्चाल आर्योंकी अपर विद्या वा वैदिक ज्ञान विभिन्न पूर्वी आर्योंकी आत्मविद्या वा पविद्यास मैं नितान्त अनभिज्ञ हूं।"
अलविद्या में वैदिक यज्ञकाण्डका निषेत्र है जो केवल निरर्थक ही नहीं बल्कि जीवकी आत्मोन्नतिमें बाधक है । ब्र ह्मण शास्त्रोंमें वह विषय मनोरञ्जक है, जहां याज्ञवल्क्य गंगाकी तराई में रहनेवाले मनुष्यों का पूर्वीय आयोको जो बहुतायतसे काशी, कौशल, विदेह और मगधमें रहते थे भ्रष्ट' संज्ञासे विभूषित करता है । भ्रष्टसे मतलब रुष्ट हुए लोग अथवा सुधारक होते हैं । इसलिए अन्ततः वह 'भ्रष्ट' लोग आर्य थे। मला, याज्ञवल्क्यने इन पूर्वी आर्योको भ्रष्ट क्यों कहा ! इसका कारण इंदन में विशेष अनुसंधान करनेकी आवश्यकता नहीं! गङ्ग प्रदेशोंके रहाकू अथवा काशी, मगधादिके निवासी पूर्वी आर्योंने अनोखी सामाजिक रीतियों का प्रचार किया था। उन्होंने केवल वेद वर्णित यज्ञोंका ही निषेध नहीं किया था बल्कि कहा था कि उनका करना पापका कारण है और न करना पुण्यका भाजन है। इस प्रकार उन्होंने एक ही दृष्टिसे लाभ नहीं उठाया बल्कि उनका विरोध करके मतभिन्नताको पूर्ण प्रकट कर दिया।
अत: यह विशेषतया स्वीकार किया जा सकता है कि ये पूर्वी बार्य जिन्होंने वैदिक. क्रियाकाण्डका निषेध किया था गोरमात्माकी अमानताका प्रचार किया था नही।समास्याकी पुत
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