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संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम माग।
अज्ञानी थे कि वे प्राकृतिक शक्तियोंसे डर जाते और उनकी उपासना करते ! वास्तवमें उन शाकभोजी ऋषियोंने वेद मंत्रों में आत्माके गुणोंका अलंकृतरूपमें गुणगान किया है। उनकी यही अलंत शब्द रचना कुछ कालके पश्चात् दैवीवाणी समझी जाने लगी और एक नए धर्मकी उत्पत्ति हो गई, ज्योंही वेदोंके यथार्थ भावोंको मनुष्योंने भुला दिया। सबसे प्राचीन मंत्र ऋग्वेदके यज्ञ विषयके अतिरिक्त हैं; और उनका यथार्थ भाव उस समय बहुत मनुष्योंको विदित था। एवं वे मन्त्र साहित्यदृष्टिसे ही सुन्दर और मनोरञ्जक नहीं थे किन्तु वे मनुष्यको आत्मज्ञान प्राप्त कगने में भी सहायक थे। इसी कारण उस समयके मनुष्योको यह कण्ठस्थ थे; सुतरां वे ऋषियोंके लिए ध्यानकी एक सामग्री थे। उनकी पवित्रता मान्यता दिनोंदिन बढ़ती ही गई और समयके दीर्घ प्रभावसे उनकी दैवीवाणीके रूपमें मान्यता होने लगी। और कुछ उनके भक्तोंने उन्हें विस्मयपूर्ण कृत्योंसे परिपूर्ण प्रगट कर दिया । इस प्रकार आधुनिक मनुष्योंने उनको विशेष मान्य समझा। यद्यपि वे उनके यथार्थ भावसे अनभिज्ञ थे और वे उन्हें अपने मतका देवी शास्त्र समझने लगे। जब वेद दैवीवाणी माने जाने लगे तब उनमें समय समयपर उनके भक्तों द्वारा न्यूनाधिक परिवर्तन कर दिये गये।
उनमें जो एक विशेष उल्लेखनीय परिवर्तन किया गया वह एक दुष्कालके प्रभावसे किया गया था, कारण कि जिनका बलिदान किया नाता उनको तो दुख होता ही है परन्तु वह यज्ञकर्ता और उसके सहायक सबहीको दुःखदायक ही था और अन्तमें हम देखते हैं कि वेदकी यथार्थ पवित्रता में भी बहा लगा था।
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