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संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग।
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भारतके धर्मा। वर्तमान भारतवर्षमें अनेक धर्म प्रचलित कहे जाते हैं । समझा जाता है कि वहां असंख्य धर्म हैं । कितनेक लोग तो यह कहते हैं कि जितने भारतवर्ष में मनुष्य हैं उतने धर्म हैं। “ वास्तवमें तो यह अन्तिम कथन संसारके सभी अधिवासियोंपर चरितार्थ होता है; क्योंकि धर्म एक व्यक्तिगत लक्षण है जो प्रत्येक मनुष्यके लिये अलग अलग है। धर्मका संबंध मनुष्यकी आत्मासे है। मनुष्योंकी आत्माएँ भिन्न २ हैं इसीलिये किन्हीं दो मनुष्योंका धर्म वास्तवमें एक नहीं है । परन्तु जिन साधारण अर्थोंमें “ धर्म " शब्दका प्रयोग किया जाता है उनका ध्यान रखकर यह कहा जा सकता है कि भारतमें तीन धर्मोके अनुयायियोंकी संख्या सबसे अधिक है-(१) हिन्दू, : २ ) इसलाम, (३) ईसाई। इनके अतिरिक्त सिक्ख, जैन, बौद्ध और पारसी भी हैं। ये सब आर्य जातिके धर्म हैं । इसलाम और ईसाई दोनोंका मूल यहूदी है। भारतमें यहूदियोंकी भी कुछ संख्या है।"* किंतु इन सबके होते हुए भी प्राचीन भारतमें केवल तीन मुख्य धर्म थे, अर्थात् जैनधर्म, हिन्दूधर्म और बौद्धधर्म। इनमें यद्यपि आफ्समें प्रतिस्पर्धा बराबर चली
आती रही है परन्तु पाश्चिमात्य देशोंकी तरह यहां कभी भी धर्मके पवित्र नामपर लहाइयां नहीं लड़ी गई। हां! यह अवश्य है कि कभीर हिंदू राजाओंने जैनों और बौद्धोंपर अत्याचार किए और कभी उन्होंने हिंदुओंपर किए, परन्तु वस्तुत: हिंदू अथवा जैन अथवा बौद्ध सभी राज्यों में सभी संप्रदायोंके पंडितोंका मान और सम्मान होता रहा।
* ला• लाजपतराय कृत " भारतवर्षका इतिहास". भाग १ पृ. २३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com