Book Title: Sankshipta Jain Itihas Part 01
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 60
________________ द्वितीयः परिच्छेद । [ ४५ गया है । इस प्रकार मनुष्यका अस्तित्व अनादिकाल से है और उसका इतिहास भी उतने ही कालसे है । संसार (सृष्टि) अनादि है । उसका कर्ताहतां कोई नहीं है, परन्तु इसमें जो पलटनें हुआ करतीं हैं उनका आदि और अन्त अर्थात् शुरू और आखिर दोनों होते हैं। भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में भी यही नियम लागू है क्योंकि वह भी इस सृष्टिके अन्तर्गत है । भरत क्षेत्रमें इस पलटनका नियम दो प्रकारसे है अर्थात् ( १ ) उन्नतिरूपसे और (२) अवनतिरूपसे । पहिली पलटनका नाम उत्सर्पिणी और दूसरीका नाम अविसर्पिणी है । * पहिली पलटनका जब प्रारम्भ होता है तब तो प्रत्येक वस्तुकी क्रम कर उन्नति होने लगती है और वह अपनी सीमा पर पहुंच कर अविसर्पिणी पलटनका आरम्भ " कर देती है जिसमें प्रत्येक वस्तुकी धीरे२ अवनति होने लगती है । वह अवनति भी अपनी सीमाको पहुंच कर उत्सर्पिणीके पूर्वक्रमको उत्पन्न कर देती है और इसी तरह इन पलटनों का क्रम चालू रहता है । अर्थात् उन्नतिसे अवनति और अवनतिसे उन्नतिकी पलटन हुआ करती है । " उन्नति और अवनति जो मानी गई है वह समूहरूपसे मानी गई है, व्यक्तिरूपसे नहीं । उन्नतिके समय में व्यक्तिगत अवनति भी हुआ करती है और अवनति के समयमें व्यक्तिगत उन्नति भी होती है । और विशेषकर उन्नति अवनति । जैनधर्म जड़पदार्थोंकी उन्नति - अवनतिसे * इन उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीका उल्लेख अल्बेरुनीने अपने विवरणमें किया है, किन्तु उसके भ्रान्तवर्णनसे ऐसा प्रकट होता है कि उसके समयमें जैनियोंका ह्रास बहुत कुछ हो चुका था । (देखो अबेनीका भारतवर्ष ) । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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