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संक्षिप्त जैन इतिहास प्रथम भाग।
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द्वितीय परिच्छेद। भरतक्षेत्र में समयचक्र और
भोगभूमिका काल।
यूरोपके वैज्ञानिकोंका मत है कि मनुष्य पशुकी हालतसे उन्नति करते २ मनुष्यकी अवस्थाको प्राप्त हुआ है; परन्तु इस मतका आधार कोरी कल्पना पर है । इसलिए यह नितान्त असंगत और दार्शनिक सिद्धान्तके विपरीत है। फिर मनुष्यकी उन्नतिक्रमको तीन कालमें विभक्त किया गया है अर्थात् ( १ ) प्राचीन “ शिलाकाल " जिसमें मनुष्य मोटे २ पत्थरके यंत्रोंसे काम लेता था, (२) पत्थरोंके अच्छे यंत्रोंके बननेका समय, और (३) वह काल जिसमें मनुष्यने धातुओंका उपयोग प्रारम्भ किया, किन्तु यह विभाजन भी कल्पित है-सैद्धान्तिक दृष्टिसे पोच है।
यथार्थमें मनुष्य अनादिकालसे है। संसारका प्रत्येक पदार्थ अनादि निधन है। जब मनुष्य था तब पशु, पक्षी, वृक्ष, जल, आदि सब थे । मनुष्य केवल पौद्गलिक पदार्थ नहीं है जो उसने पशुसे विकास करके मनुष्यकी दशाको पालिया हो। वास्तवमें वह पुद्गल और चेतन पदार्थ जीव ( Conscious Being=Soul ) का संयुक्त है। वह इस संसारमें अपने पौद्गलिक संबंधकी प्रचुरता, हीनता आदिके लिहाजसे पशु, मनुष्य, नरक, देवगतियोंमें भ्रमण करता है। इस विषयका पूर्ण वर्णन जैन ग्रन्थोंसे देखना चाहिए। यहां पर प्रसंगवश इतना लिखा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com