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पापिष्ठेरवपि भवरिथतिश्चिन्त्या (पापियों की भी भवस्थिति का विचार करना)
उपाध्यायजी महाराज दूसरे गुण/शिक्षा के विषय में बता रहे हैं। जो हमें शिष्ट बनाएं या शिष्टाचार सिखाएँ वही शिक्षा है। वे कह रहे हैं कि पापी की भी निंदा मत करना । स्थूल बुद्धि से सोचें तो हमें लगता है कि धर्मीजन की बुराई-निंदा करे तो पाप लगता है। परन्तु पापियों की निंदा करने में थोडी न पाप लगता है? सामान्य रीति से हम इस तरह सोचते हैं। जो देव की निंदा करते हैं, गुरू की बुराई और अवर्णवाद करते हैं धर्म के द्वेषी है। उनकी निंदा करने में क्या दोष हैं? उनकी निंदा तो करनी ही चाहिए न! यह तो अच्छी बात है न! किन्तु उपाध्यायजी महाराज कह रहे है कि निंदा किसी की भी की जा रही हो चाहे वह धर्मी हो या अधर्मी चाहे वह छोटा हो या बडा, चाहे वह पापी हो या पुण्यवान, चाहे वह नामी हो या अनामी, निंदा या धिक्कार करना हो तो पाप का किया जाना चाहिए, पापी का नहीं। हमने ऐसे शब्द बहुत बार सुने है। परन्तु हकीकत/ वास्तविक जीवन में पाप और पापी के बीच की भेद रेखा मिटती नजर आती है। पाप की निंदा करते-करते पापी की निंदा कब शुरू हो जाती है उसका ख्याल ही नहीं रहता है। पापी की निंदा करने वाले हम कौन होते है? तिरस्कार करने वाले हम कौन है? क्या हमने कोई पाप नहीं किया है? क्या हम खुद पाप रहित है? अगर हम पाप रहित नहीं है तो हमें निंदा और तिरस्कार करने का कोई अधिकार नहीं है। ये ताज्जुब की बात है कि संपूर्ण पाप रहित परमात्मा कभी किसी की निंदा नहीं करते। वे तो पापी को भी पूर्ण रूप में देखते है जबकि हम किसी को नहीं छोड़ते। योगनिष्ठ बुद्धि सागर सूरीश्वरजी महाराज ने एक भजन पद रचना के प्रारम्भिक शब्दों में यही बात कही है
आतमध्यानथीरेसंतो सदास्वरूपे रहे। कर्माधीनछे सहुसंसारी कोई ने कांई न कहे।।
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