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वास करना पड़ेगा। हाय! कहाँ रतिनिधान सी देवांगनाएँ और कहाँ अशुद्धि/ गंदगी से भरी हुई विभत्स मानुषी स्त्री? इस तरह स्वर्ग की वस्तुओं को याद करके देव रात-दिन विलाप करता है और अपार दुःख का अनुभव करता है।
देवताओं की इस हालत से वाकिफ, विरक्त आत्मा को देवलाक के दिव्य सुखों का आकर्षण नहीं होता है, वह तो भव-बंधन से छुटकर मुक्ति के सुख को पाने के लिए सदैव उत्सूक रहती है। इस प्रकार विषयों से विरक्त बने योगी पुरूषों को साधना के फल स्वरूप अनेक प्रकार की लब्धियों, उपलब्धियों, विपुललब्धि, ढाईद्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र में रहे जीवों के मनोगत पर्यायों या द्रव्यों को जानने वाला ज्ञान विपुलमतिमनःपर्यवज्ञान होता है, जो एक प्रकार की लब्धि है। पुलाकलब्धि, चक्रवर्ती की सेना को चूर्णकर देने वाली शक्ति पुलाकलब्धि होती है। चारणलब्धि, उड़कर किसी स्थान पर आने-जाने की शक्ति चारणलब्धि कहलाती है। आशीविषलब्धि अपकार या उपकार करने में आशीविषलब्धि समर्थ होती है। इसके अलावा मणि, मंत्र,
औषधि आदि की भी कई ऋद्धि-सिद्धियाँ होती है। ये सब लब्धियाँ ज्ञान-दर्शन, चारित्र, तप और संयम की विशुद्ध आराधना से प्राप्त होती है। इनके प्राप्त होने पर भी विरक्त आत्माएँ घमंड नही करती और इनके प्रयोग से प्रसिद्धि आदि की कामना भी नहीं करती है। क्योकि मोक्ष की उपलब्धि को ही वे श्रेष्ठ उपलब्धि समझती है। सनत्वक्रवर्ती ने घास के जलते पूले के समान चक्रवर्ती के वैभव को छोड़ दिया और साधु बनकर दुष्करतप किया, जिससे उन्हें अनेक लब्धियाँ प्राप्त हुई, फिर भी वे अपने शरीर के प्रति निरपेक्ष थे।
हुआ यूं। सनत्कुमार चक्रवर्ती का अद्भूत रूप था। एक दिन इन्द्र महाराजा ने सौधर्म सभा में सनत्कुमार चक्रवर्ती के अद्भूत रूप की मुक्त कंठ से प्रशंसा की, वहाँ मौजुद दो मिथ्यादृष्टि देव उस प्रशंसा को बर्दास्त नहीं कर पाये । वे दोनों ब्राह्मण का रूप बनाकर इन्द्र के वचन की परीक्षा के
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