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स्व-पर का कल्याण किया है। इतना प्राप्त कर लेने या निकाल लेने के बाद भी वह खजाना अखूट है, कभी रिक्त होने वाला नहीं है- हम भी उसे पा सकते हैं। चाहिए उसे पा लेने की उत्कंठा, तत्परता, प्रयास और पुरूषार्थ । अगर हम भी पूर्वजों के पथ का अनुसरण करें तो गरीब, दीन, हीन, रंक बने रहने की आवश्यक्ता नहीं रहेगी। उस मार्ग के अनुगामी बनने के लिए प्रथम सोपान के रूप में प्रमुख आवश्यकता है सम्यक्त्व की। कहा भी हैं
एक समकित पाया बिना, जप-तपकिरिया फोक।
ज्यों मुर्दो सिणगारखो, समझ कहै त्रिलोक। मुर्दे को शृंगार करना व्यक्ति का पागलपन और मूर्खता हैं । ऐसा करने से उसमें नए प्राणों का संचार नहीं हो सकता। वैसे ही सम्यक्त्व तो नहीं है किन्तु जप-तप खूब कर रहे हैं, बड़ी-बड़ी तपाराधना की जा रही है तो आगम शास्त्र कहते हैं कि वे सभी व्यर्थ हैं। सम्यक्त्व पाये बिना दृढ़ श्रद्धा हो नहीं सकती एवं श्रद्धा के अभाव में समस्त क्रियाएँ, आराधनाएँ राख पर लीपने के समान हैं। सम्यक्त्व यथार्थतः धर्म रूपी महल की नींव है। धर्म अगर नगर है तो सम्यक्त्व उस का प्रवेश द्वार है। धर्म यदि कोट है तो सम्यक्त्व उसका आधार है। पेड़ तो है किन्तु उसकी जड़े नहीं है या गहरी नहीं है तो उस पेड़ का जीवन क्षणजीवी है, अस्थायी है। हवा के साधारण झोंके से ही वह धराशायी हो जाएगा, वैसे ही हमारे तप त्याग की परम्परा लम्बी-चौड़ी है किन्तु सम्यक्त्व के अभाव में वे निस्सार हैं। दूकान की शोभा उसमें रहे माल-सामान से होती है और रत्नों की सुरक्षा मजबूत तिजोरी से होती है। ठीक उसी प्रकार से सम्यक्त्व ही हमारे समस्त धार्मिक जीवन की शोभा बढ़ाने वाला एवं करने वाला है। आप अपने घर में सोना-चाँदी मूल्यवान रत्नों एवं धन-सम्पदा की सुरक्षा के लिए तिजोरी आदि रखते हैं। उस कारण से चोरों आदि का भय कम रहता हैं, आप निश्चिन्त सोते है। उसी प्रकार से सांसारिक विषयवासनाएँ कषायादि चोर आपके चारों और धर्म खजाने को लूटने के लिए लगे हुये हैं किन्तु यदि आपने सम्यक्त्व की मजबूत तिजोरी प्राप्त कर ली है तो फिर डर कैसा? आप
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