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रखता है, वही हमारे साथ चल सकता है, यह है फकीर की मस्ती। कबीर के ही समकालीन एक जैन योगी पुरूष हुए हैं- आनन्दधनजी । आत्म-साधना और आत्म-आराधना की दृष्टि से योगीराज आनन्दधनजी का व्यक्तित्व अनोखा है। आनन्दधनजी ने ऐसे समय में जन्म लिया था जब यतिवर्ग का बोल बाला था, बाहृयाडम्बर की प्रबलता थी। लोग केवल बाहर के क्रियाकलापों को ही धर्म मानते थे। ऐसे युग में आनन्दधनजी ऐसे साधक हुए जिन्होंने अपनी मर्यादाओं का निमार्ण खुद किया। आनन्दधनजी कभी अलख जोगी, अलख निरंजन की रट लगाते तो कभी जंगल में जाकर बैठ जाते। कभी पेड़ के नीचे तो कभी खूले आकाश के नीचे आसन जमा लेते। कभी-कभी श्मशान में भी चले जाते थे। निजानंद की मस्ती में मस्ताना योगीश्री आनन्दधनजी एक गाँव में प्रतिदिन प्रवचन करते थे। नगर शेठ हरदिन सुनने आते थे। एक दिन नगर शेठ समय पर नहीं पहुँचे, देर से पहुंचे थे। प्रवचन शुरू हो गया था। नगर शेठ बोला- महाराज! आपको पता है यह उपाश्रय किसने बनवाया है? आपको पता है इस गाँव में सबसे ज्यादा धनवान कौन है? आपको पता है मेरे आने से पहले प्रवचन शुरू नहीं होता? आज प्रवचन क्यों शुरू कर दिया? ठीक है, अब से ध्यान रखना। आनन्दधनजी तुरन्त ही खड़े हो गए। यह लो रखो तुम्हारा उपाश्रय । और रखो तुम्हारी पाट। मैं उस पेड़ के नीचे प्रवचन दूँगा। जिसे सुनना होगा वहाँ आयेगा। यूँ कहकर आनन्दधनजी वहाँ से रवाना हो गए। मैंने सुना है। उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज काशी से अध्ययन करके लौटे थे, और वर्षावास सुरतनगर में बीता रहे थे। काशी में अन्य अध्ययन अधिक रहने से वे अधिक स्तवन याद नहीं कर पाए थे, अर्थात् उन्हें अधिक स्तवन नहीं आते थे, तो प्रतिक्रमण में थोड़े-थोड़े दिनों में स्तवन रीपिट होते थे।
एक दिन किसी श्रावक ने कह दिया कि महाराज क्या काशी में इतने वर्ष रह कर घास काटी? उस दिन तो वे चूप रहे, कुछ भी नहीं बोले। किन्तु दूसरे दिन प्रतिक्रमण के दौरान नमोऽस्तु के बाद । उन्होंने स्तवन बोलना प्रारंभ किया..... आधा घंटा हुआ...... एक घंटा हुआ किन्तु उनका स्तवन पूरा ही नहीं
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