Book Title: Priy Shikshaye
Author(s): Mahendrasagar
Publisher: Padmasagarsuri Charitable Trust

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Page 227
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाता, गलत होने से घूमते रहना पड़ता है....बस! कर्मसत्ता ने भी अज्ञानदशा या मोहदशा की पट्टी बांधकर हमें चौदह राजलोक में चौरसी लाख योनिमय, चारगतिमय इस संसार में भटकने के लिए छोड़ा है। उसकी शर्त है कि अपने सच्चे स्वरूप को खोजना है, वह न मिले वहाँ तक भटकना पडेगा, इतना ही नहीं, जितनी बार मिथ्या पदार्थ में, "यह मै... यह मैं" ऐसा मानेगा, उतनी ही बार तुं सजापात्र बनेगा ऐसे देखा जाय तो इस खेल में जीत जाना सरल है, क्योंकि मैं अपने स्वरूप में ही हूँ। मतलब कि वह सतत् अपने साथ अपने में ही है उसको पकड़लो तो खेल पुरा हुआ, भटकना बंद हुआ। IAI 221 For Private And Personal Use Only

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