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मेरा घोडा गया उसकी फिक्र कर । पहरेदार ने कहा शेठजी! अब घोड़ा गया, वापस आने वाला नहीं है। चिंता घोड़े की मत करो, चिंता तो यह करो कि अब आप सामान कैसे उठाओंगे। कहना यही है कि संकल्पों विकल्पों में नींद भी उड़ जाती है और जिन्दगी भी पूरी हो जाती है और कीमती घोड़े की तरह आत्मा कहीं किसी भव में खो जाती है। कुविकल्प साधना मार्ग में सबसे बड़ा विध्न है। कुविकल्प आर्थात् कुविचार। कुसंग और कुसाहित्य की तरह कुविचार भी खतरनाक है। मैं तो कहता हूँ कुसंग कुसाहित्य से भी खतरनाक है क्योंकि कुसंग और कुसाहित्य तभी खतरनाक बनते है। हममें कुविचार पैदा होते हो। कुविचार ही पैदा न हो तो वे कुछ नहीं बिगाड़ सकते। लेकिन संग
और साहित्य की उपेक्षा मत करना क्योंकि विचार उन्हीं के संग से बनते है। विचारों के अनुसार ही आचार बनता है। कुविचारों को नियंत्रण में रखने के लिए कई सुविचार चाहिए, ऐसा नहीं है। एक ही सुविचार..... हृदय की गहराई तक पहुँचा हुआ, सारे कुविचारों को मार भगाता है। क्योंकि एक चम्मच दहीं लीटर दो लीटर दुध को दहीं बना देता है। वैसे एक सुविचार कुविचारों को सुविचारों में बदल देता है। बाहरी रूप से पता नहीं चलता कि कौन क्या सोच रहा है, वह तो खुद ही जान सकता है। बाहरी क्रिया से तो लगता है कि यह आदमी ध्यान धर रहा है किन्तु भीतर तो कुविकल्पों का तुफान चल रहा होता है। ऐसे ध्यान का कोई मूल्य नहीं होता, वह ध्यान नहीं होता अपितु दुर्ध्यान होता है । कुविकल्प के सम्बन्ध में कल्पसूत्र में एक दृष्टान्त आता है।
____ कोंकण/कुंकण देश के एक वणिक ने वृद्धावस्था में दीक्षा ली थी। एक दिन उस नये मुनि ने ईरियावही से कायोत्सर्ग में अधिक देर लगा दी। जब उसने कुछ देर बाद कायोत्सर्ग पारा, तब गुरू ने पूछा कि, इतनी देर ध्यान करके तुमने क्या चिन्तन किया? वह बोला- स्वामिन्! जीव-दया का चिन्तन किया। गुरू ने पूछा जीव-दया का चिन्तन किस प्रकार का? वह बोलाभगवन्! पहले गृहस्थावस्था में खेत में उगे हुए वृक्ष, झाड़-झंखाड़ आदि को
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