________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रतिबिंब हैं, मुक्त आत्मा और संसारी आत्मा। मुक्त वह है जो सम्पूर्ण है और संसारी वह है जो बँटा-बिखरा है, बंधा जकड़ा है। एक सूत्र है, “अप्पा सो परमप्पा'' आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा वह तत्त्व हैं जो जीवन का जनक है। आखिर उसी के चलते तो हमारे भीतर जीवन के स्वर सुनाई देते हैं। भले ही इसके रंग-रूप न हों, अरंग हो, अरूप हो, तेल-बाती न हो, फिर भी जीवन की ज्योतिर्मयता इसी के कारण है। आचार्य श्री मानतुंगसूरीजी महाराज की भाषा में
निधूम वर्तिरपवर्जित तैलपुरः कृत्सनं जगत्त्रयमिदं प्रगटीकरोषि। गम्यो न जातु मरूता चलिता चलाना
दीपोपरस्त्वसि नाथ जगत्प्रकाशः।। तुम वह दीपक हो जिसमें न तेल है, न धुआँ है, न बाती है। फिर भी तीनों लोक में सम्भावना तो तुम्हारी ही है। तुम ही आलोक हो और तुमसे ही तीनों लोक आलोकित है। जैन दर्शन आत्मवादी दर्शन है। जैन धर्म में वह दर्शन मान्य नहीं है जिसमें आत्मा न हो और वह ग्रन्थ भी मान्य नहीं है जिसमें आत्मा को आत्मा के रूप में स्वीकार न किया गया हो, जैन दर्शन का एक मात्र आधार आत्मा है। सामायिक, प्रतिक्रमण, पूजा, पाठ, त्याग, तपस्या अथवा कोई भी क्रिया काण्ड क्यों न हो, हर क्रिया अपने आप में व्यक्ति को आत्मा से जोड़ने के लिए ही है। वे सारी क्रियाएँ ही मान्य है जो आत्मा के साथ जुड़ती हों। भगवान महावीर कहते हैं कि जो आत्मदशा, आत्मत्तत्त्व तथा आत्मा की शक्ति को स्वीकार नहीं करता वह मिथ्यात्वदशा में जी रहा है। भगवान महावीर ने ईश्वर के तीन विभाजन किए है- (1) सिद्ध ईश्वर (2) मुक्त ईश्वर और (3) बद्ध ईश्वर । पहले का नाम उन्होंने रखा सिद्ध ईश्वर । सिद्ध ईश्वर वह है जो संसार के बंधन से मुक्त हो गया तथा जिसके कर्म समाप्त हो चुके हैं, जन्म-जरा, मृत्यु मिट चूकी है, उनका नाम उन्होंने दिया सिद्ध ईश्वर । दूसरा ईश्वर वह है, जो संसार में तो है मगर उसके बंधनों से मुक्त है, जिसके घाती कर्मों के बंधन
217
For Private And Personal Use Only