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(आधार) पर प्रगटता है, वह शब्दों के वर्णन से प्राप्त नहीं होता। इसलिए तो कहा जाता है सौ शब्दों से एक चित्र अधिक असरकारक होता है। बहुत बार जिस वस्तु को समझे भी न हो, उस वस्तु को समझाने के लिए शब्दों की सरिता बहती है जबकि वह खुद ही नहीं समझ पाया है। आत्मावबोध भी गुणों से अनुभूत होता है। शब्दों से नहीं। शेठ ने नौकर से कहा, जरा बाहर जाकर देख तो, सूर्योदय हुआ या नहीं? तब नौकर कंदील (लालटेन) लेकर बाहर निकला। शेठ ने पूछा- कंदील क्यों लिया? तब नौकर कहता है कंदील के उजाले में देखने के लिए कि सूर्योदय हुआ है या नहीं। नौकर को पता नहीं है कि सूर्योदय कंदील से देखने की चीज नहीं है। अगर सूर्य का प्रकाश फैला हो, और अंधकर गया हो तो समझ लेना कि सूर्योदय हो चूका है। वैसे आत्मावबोध शब्दों के कंदील से बताना नहीं होता। अगर गुण प्रगट हुए हो और दोषों का नाश हुआ हो, तो समझ लेना कि आत्मावबोध हुआ है। निगोद अवस्था में से व्यवहार राशि में आये, वहाँ से पुण्य का स्टोक बढ़ने से एकेन्द्रिय बने, किन्तु एकेन्द्रिय अवस्था में ऐसी कोई शक्ति नहीं थी कि आत्मतत्त्व की पहचान कर सके। द्विन्द्रिय में ऐसी कोई बुद्धि नहीं मिली थी कि आत्मशुद्धि कर सके। तेइन्द्रिय अवस्था में ऐसी कोई तेजस्वीता प्राप्त नहीं हुई थी कि त्रितत्त्व और त्रिरत्न की आराधना कर सके। चउरिन्द्रिय अवस्था में आये वहाँ ऐसी कोई चतुराई नहीं थी कि चतुरगति से छुटकारा पा सके । परन्तु अब घोल पाषाणवत् नदी के पत्थर की तरह रेंगते-रेंगते (खिसकते) गोलाकृति को पाया, अकामनिर्जरा करते-करते पंचेन्द्रिय अवस्था में आया। पंचेन्द्रिय में भी मानवभव, उत्तमकुल, जैनधर्म पाया, कैसा अनमोल अवसर प्राप्त हुआ। इस अवसर को पाकर अंतरद्वार खोलने के लिए, आत्मावबोध पाने के लिए कठीन साधना किजिए। क्योंकि आत्मा जैन दर्शन का केन्द्र-बिन्दु है। आत्मा की घुरी पर ही जैन दर्शन का चक्र गतिमान है। दुनिया में सबसे ज्यादा महत्त्व परमात्मा का है, किन्तु भगवान महावीर परमात्मा के कारण आत्मा के मूल्य को कम नहीं मानते। परमात्मा आत्मा का ही उज्जवल और संपूर्ण रूप है। आत्मा के दो
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