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स्वभाव से या अन्तःकरण से मानते हुए, उस पर विशिष्ट श्रद्धा रखते हुए मोहनीय कर्म के क्षय से जो अभिरूचि पैदा होती है, वह सम्यक्त्व है। संक्षिप्त में कहें तो “यथार्थ तत्त्वश्रद्धा सम्यक्वम्” तत्त्व और उनके स्वरूप पर सम्यक श्रद्धा ही सम्यक्त्व है, यही आत्मोन्नति की प्रथम भूमिका है। मन से मैं वीतराग देव को ही ध्याऊँगा, अन्य देव को नहीं और काया से श्रीवीतराग देव को ही नमस्कार करूंगा अन्य देव को नहीं। जब ऐसा संकल्प करते है तो श्रद्धा दृढ़ क्यों नहीं होगी? क्यों फुटबॉल की गेंद बनकर इधर से उधर दूसरे से तीसरे के पास भटक रहे हो। सम्यक्त्व दृष्टि को प्रकाश से भर देता है, जीवन मार्ग को प्रकाशित कर देता है। वह अंधकार से प्रकाश में गमन करने का संकेत करता है। दृष्टि के इस प्रकाश को ही आप प्राप्त करें इसके अभाव में सारे प्रकाश अंधकार-रूप ही हैं। आपके पास दीपक का प्रकाश है, बिजली का भी प्रकाश है, सूर्य और चन्द्र का प्रकाश भी है किन्तु आंखों का प्रकाश नहीं है तो इन सारे प्रकाशों की क्या कीमत? आंखों का प्रकाश सारे प्रकाशों को ग्रहण करता हैं, उसके होने पर ही सूर्य चन्द्र के प्रकाश का मूल्य हैं। उसके अभाव में सब कुछ सूना-सूना है। निकट में पड़ी हुई चीज भी नहीं दिखाई पड़ती। ठीक उसी प्रकार गुरूओं के द्वारा दिया गया तत्त्वज्ञान का प्रकाश या शास्त्रीय वचनों से प्राप्त गुरूओं के द्वारा दिया गया तत्त्वज्ञान का प्रकाश या शास्त्रीय वचनों से प्राप्त प्रकाश आदि का मूल्य तभी है जब सम्यक्त्व की आंख खुली हो । भगवान महावीर के वचन भी हमारा उद्धार नहीं कर सकते यदि सम्यक्त्व नहीं है। सम्यक्त्व सभी प्रकाशों का प्रकाशक है। सम्यक्त्व का विरोधी शब्द है मिथ्यात्त्व। यह मिथ्यात्व हमें संसार से बांधता है जबकि सम्यक्त्व हमें उससे मुक्त करता है। अगर बन्धन से मुक्त होना है तो सम्यक्त्व का सहारा लिजिये। मृत्यु से बचाने वाला, बार-बार के जन्म-मरण से छुटकारा दिलाने वाला और कोई तत्त्व या पदार्थ नहीं है, शिवाय सम्यक्त्व के। हम अपने हृदय को टटोले एवं देखे कि वहाँ स्म्यक्त्व का वास है या नहीं? ज्ञानियों ने इस पहचान के लिए
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