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निडर/निर्भीक होकर धर्माराधना करते रहो, कहीं से भी आपको डर नहीं होगा। क्योंकि सम्यक्त्व को प्राप्त करने के बाद आपके लिए मोक्ष में सीट रिजर्व हो गई। सामान्यतः मनुष्य जीवन मिलना भी दुर्लभ है। अगर पुण्य प्रभाव से मानव-भव मिल भी गया तो सम्यक्त्व की प्राप्ति होना और भी कठीन है। जिसने अन्तर्मुहूर्त मात्र के लिए भी सम्यक्त्व पा लिया, वह अवश्य ही मुक्त होगा एवं सम्यक्त्व पा लेने से वह परिमित संसारी हो जाता है। सम्यक्त्व एक अनमोल रत्न है। चिन्तामणी आदि रत्न तो भौतिक चीजें प्रदान करते हैं किन्तु यह सम्यक्त्व रूपी रत्न अनन्त आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है, ऐसे सुखों की प्राप्ति कराता है जिन्हें पाने के बाद और कुछ भी पाने की इच्छा नहीं रहती।
सम्यक्त्वरत्नान्न परंहिरनं, सम्यक्त्व मित्रान्न परंहि मित्रम्। सम्यक्त्वबन्धोर्न परो हि बन्धुः, सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभः॥
सम्यक्त्व से बढ़कर और कोई रत्न नहीं, इससे बढ़कर और कोई मित्र नहीं। हमारा सर्वश्रेष्ठ बन्धु भी यही हैं और इस संसार में सबसे बड़ा लाभ भी यही है, क्योंकि यह दुर्गति के दरवाजे को बंद करने वाला और सम्पदा का द्वार उद्घाटित करने वाला है। मोक्ष मेरूपर्वत का शिखर है तो सम्यक्त्व उसका मूल है। इसके बिना यह जीव कितनी भी आराधना कर लें, फिर भी आराधक नहीं बन सकता। सम्यक्त्व के अभाव में जीव मिथ्यात्व दशा में रहकर चारित्र का उत्तम रीति के पालन करते हुए दिव्य, देवोपम, तेजोमय सुखों को पाने का अधिकारी बन सकता है, किन्तु उसके बाद पुनः संसार में लौटना पड़ता है। भवभ्रमण का अन्त नहीं हो पाता। इसलिए वीतराग देव कहते हैं कि यदि तू धर्म का आचरण न हीं कर सकता, तो कम से कम अपनी दृष्टि तो शुद्ध रख । तत्त्व का जो स्वरूप है, उसे उसी रूप में जानकर उस पर श्रद्धा कर ताकि चारित्र धर्म के करीब पहुँच सके। समकित से सही, शुद्ध दृष्टि का विकास होता है जिसकी आज के युग में अत्यन्त आवश्यकता है। आज का मनुष्य जो जैसा है, वैसा नहीं देखता और जैसा देखता है वैसा नहीं कहता। उसके देखने जानने और कहने में अन्तर रहता है क्योंकि उसकी दृष्टि सही नहीं है। आज जितने
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