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के सामने ही रखकर जीया जाय तो, अपना इसी क्षण में परिवर्तन हो सकता है। तो आत्मज्ञान के ध्येय को हमेशा नजर के सामने ही रखना।
ध्येय विस्मरण नहीं होना चाहिए। मैं आप से पूछ रहा हूँ कि आपका ध्येय क्या है? आप क्या हासिल करना चाहते है? आपने सामने लक्ष्य क्या रखा है? पद, प्रतिष्ठा, पैसा, कीर्ति यही तो हमारा ध्येय है। आत्मज्ञान चाहता कौन है? तीर्थ में, मंदिर में, उपाश्रय में, प्रवचन या प्रतिक्रमण में ऊंचा होता है, पर ज्यों ही घर लौटते है हमारा ध्येय बदल जाता है। धर्मस्थलों में होते है वहाँ तक स्वभाव दशा मैं और घर संसार में आते ही विभावदशा में चले आते हैं।
एक बार पतंगों और बरसाती कीड़ों में परस्पर दोस्ती हो गई। बरसाती कीड़ों ने कहा कि भाई, पतंगों। आपकी और हमारी जाति एक ही है अतः आप हमें भी अपना लिजिये । हम आप से मेलजोल चाहते हैं। अलगाव नहीं चाहते, इसलिए हमें भी आप अपने में मिला लिजिए। तब पतंगों के सरदार ने कहा- भाई । बात तो ठीक है, किन्तु कुछ देर सब्र करो, समय पर विचार कर लें। संध्या के समय जब दीपक जलने का समय हुआ तो पतंगों ने कहा- जरा देख आओ तो, शहर में रोशनी हुई या नहीं? बरसाती कीड़े भागे-भागे गए और थोडी देर में ही लौटकर आ गए। कहा कि हम देख आए हैं कि शहर में रोशनी हो गई है। तब पतंगों के मुखिया ने कहा- बस तुम्हें देख लिया, तुम्हें हमारी जाति में नहीं मिलाया जा सकता। क्योंकि रोशनी की ओर गया हुआ पतंगा लौटकर आता ही नहीं है, वहीं एकाकार हो जाता है। जब तक आत्मभाव में विसर्जन नहीं होता है वहाँ तक मोक्ष लक्ष्य की बात ही कहाँ उठती है। आत्मप्रभु की शरण में लीन होने का मतलब है स्वयं प्रभु बन जाना। मैं आप ही से पूछता हूँ कि आप भगवान की शरण चाहते हो या भागवान (धनवान) की? यहाँ बैठे हो इसलिए शायद कह दो कि हम तो भगवान की शरण चाहते है। किन्तु भगवान या भागवान बनने का विकल्प जब आपके सामने रख दिया जाय तो आप भागवान बनना ही पसन्द करोंगे।
इन दोनों शब्दों में केवल एक मात्रा का ही फर्क है किन्तु अर्थ में बहुत
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