________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यदि आपका घर सत्साहित्य से सजा हुआ है, भले ही आप कुछ नहीं जानते हैं, पढ़े लिखें खास नहीं हैं, फिर भी आने वाले लोग साहित्य को देखकर आपको पढ़े लिखे विद्वान समझेंगे। वह साहित्य मूर्खता को ढांकता है। घर में आने वाले लोग पढ़ेंगे तो आपको लाभ ही है।
फारस में सन् 938 में एक वजीर था। उसके पास एक लाख सत्तर हजार किताबें थी, जिन्हें वह सदा अपने साथ ही रखा करता था। जब वह युद्ध के मैदान में जाता तब भी किताबें साथ ही रखता। किताबों को इधर से उधर ले जाने के लिए चार सौ ऊँट थे, और इतनी व्यवस्थित रखी जाती थी कि आवश्यकता होती उसी समय वह निकाली जाती थी। बुद्धिमान मनुष्य हमेशा सत्साहित्य से प्रेम करते हैं। अक्षर दो प्रकार के हैं। (1) संज्ञाक्षर और (2) व्यंजनाक्षर । जो लिखे जाते है वे संज्ञाक्षर हैं तथ जो मुख से उच्चरित किये जाते हे वे, व्यंजनाक्षर है। तीर्थकर परमात्मा की वाणी भी व्यंजनाक्षर रूप बनती है तभी दूसरों को बोध होता है। पाँच ज्ञान में अपेक्षा से श्रुतज्ञान ही अधिक कीमत्ति है। क्योंकि श्रुतज्ञान के बिना केवलज्ञान सम्भव नहीं है। परमात्मा भी केवल ज्ञान के बाद देशना देने के लिए श्रुतज्ञान का ही उपयोग करते हैं। केवलज्ञान का मूल श्रुतज्ञान है। वर्णमाला के सभी अक्षरों का उच्चारण परमात्मा के मुख से होने के कारण सभी अक्षर पूजनीय है। गणधर भगवन्त भी इस ब्राह्मीलिपि को “नमो बंभी लिविए" कह कर प्रणाम करते है। इस वर्णमाला का उपयोग आज तक समस्त तीर्थकर परमात्माओं ने किया है। वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर ज्ञानमय है। श्रुतज्ञान की भक्ति से ही अन्त में केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है।
हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज सद्ज्ञान के महान उपासक थे। वे दिन भर ग्रन्थ सृजन में लगे रहते थे, संध्या के समय भी लिखते रहते थे। रात्रि के समय भी वे सृजन यात्रा जारी रखना चाहते थे, परंतु रोशनी के अभाव में लेखन संभव नहीं था। गुरूभक्त लल्लिग ने गरूदेव की समस्या जान ली, उसने उपाश्रय में अत्यन्त ही कीमति मणि रख दिया। उसके अचित प्रकाश में हरिभद्र
-1961
-
-
For Private And Personal Use Only