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हुआ। हमें भी यदि निर्बन्धन होना हो तो अहंकार छोड़ना होगा। (2) विषय–सेवन, विषय वासनाओं में पड़कर कीड़े मकोडों की तरह कुल बुलाते रहना। विषय-वासना से इस जीव की कभी तृप्ति होती नहीं है, फिर इस संसार का अन्त कैसे हो? घी की आहुति देने से आग बढ़ती है, बुझती नहीं। वैसे विषय भोगों से तृप्ति नहीं होती, अपितु अतृप्ती बढ़ती है। विषय वासनायें मनुष्य को सत्य से हटा देती है जिससे मनुष्य परभव का विस्मरण कर जाता है। “विषया विश्ववंचकाः" विषय प्रारंभ में रमणीय लगते है उनका परिणाम दुःखदायी होता है इसलिए दशवैकालिक सूत्र में प्रभु फरमाते हैं। “विसएसुमणन्नेसु पेमं नामिनिवेसए"। मनोरंजक विषयों से प्रेम न करें, उनमें उलझें नहीं। जो इन विषयो में प्रविष्ट नहीं हुए हैं वे ही स्थितिप्रज्ञ हैं। (3) "संसारस्स उ मूलं कम्म, तस्स वि हुंति य कसाया' । संसार का मूल कर्म है और कर्म का मूल कषाय है। निशीध भाष्य में यह बात कही गई है।
ज अज्जिय चरित, देसूणाए विपुवकोडीए।
तंपिकसाइयमेतो नासेइ, नरो मुहुत्तेण।। किसी ने देशोनकोटि पूर्व की साधना करके जो चरित्र अर्जित किया था, वह केवल अन्तर्मुहूत भर के कषाय से नष्ट हो जाता है क्योंकि अकषाय ही चरित्र है । अतः कषाय मुक्ति को ही वास्तविक मुक्ति माना है। (4) निद्दा, प्रमाद का चौथा प्रकार है निद्दा, जो हमेशा प्रभुस्मरण में धर्म साधना में बाधा उपस्थित करती है। ऐसा कहा जाता है कि कुंभ कर्ण जो महानिद्रालु था, राम के बाणों से आहत होकर मर गया तब उसकी पत्नी विधवा हो गई और विलाप करने लगी। उसने राम की सेवा में उपस्थित होकर दीनता प्रगट की। तब राम ने उसे दिलासा/सान्त्वना देते हुए वरदान दिया कि तुम सभाओं में उपस्थित होकर कथा पुराणादि सुनों और अपना जीवन सफल बनाओ। ऐसा मालुम होता है कि तभी से यह निद्रा देवी प्रत्येक धर्म सभा में सबसे पहले आ उपस्थित होती है और आप लोगों को आनन्दित करती है। सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया
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