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आदमी जितने अंश में अपने आवेग पर नियंत्रण काबू कर सकता है, उस आदमी का उतना भाग "आदमी" का है, शेष भाग पशु का है। जो लोग ऐसा कह रहे है कि आवेगों को दबाना नहीं चाहिए, मन में आए वैसा बरतने की छूट देते है, वे लोग मनुष्य को पशुता की ओर धकेल रहे है। किसी का भी दमन मत करो। दमन करने से वे वृत्तियाँ दुगुनी शक्ति से दबी हुई स्पींग की तरह उछलेगी। उससे अच्छा है उसे बाहर ही आने दो। तुम निर्बोझ, निर्भार हो जाओगे। ऐसी बातें करने वाले और सलाह देने वाले किसी का कहा हुआ कह रहे हैं। किन्हीं मनोविज्ञानिओं का है। सब उसका अनुसरण कर रहे है, यह एक प्रवाह है। वे लोग इतना भी नहीं सोचते कि मन में जैसा वेग आये उसी प्रकार बर्ताव करने लगेंगे तो दुनिया की क्या हालत होगी? जगत की बात छोड़ो अपने मन में भी क्या-क्या चलता रहता है कैसे-कैसे आवेग उठते हैं? उन सभी आवेगों इच्छाओं की पूर्ति करने की छुट्टी दे दी जाय तो क्या होगा? क्या हम इन्सान के रूप में गिने जायेंगे? अरे! फिर तो हम में
और पशु में कुछ भी फर्क नहीं रहेगा। सिर्फ दमन ही नहीं दमन के बाद फिर विसर्जन भी होना चाहिए और दमन के बाद ही विसर्जन हो सकता है। जैसे पानी में कचरा है और व्यक्ति फिटकरी के सहयोग से कचरे को नीचे दबा देता है, पर क्या हम उस पानी को निर्मल कहेंगे? यदि उस पानी की निर्मलता परखनी हो तो उसे वापस हिलाना, पाओगे वह पुनः मटमैला हो गया है। पानी को निर्मल करने के लिए कचरे को सदा नीचे दबा कर रखना हितकारी नहीं है। पानी को अगर सौ फिसदी निर्मल/स्वच्छ करना चाहते हो तो कचरे को नीचे डुबाकर ऊपर के पानी को किसी दूसरे बर्तन में निकाल दो और नीचे के पानी को विसर्जन कर दो। फिर उस पानी को कितना भी हिलायें वह पुनः गन्दा नहीं हो सकता तो पहले प्रयत्न पूर्वक दमन फिर विसर्जन हो। इच्छाओं, कषायों और वासनाओं के विसर्जन का यही श्रेष्ठ उपाय है। सिर्फ दमन करके बैठे रहना ठीक नहीं, उन्हें छोड़ा भी
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