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तमाम महानतम पुरूष वन गये, अकेले रहे थे और पूज्य बने थे। पूर्व में जो रचनाएं हुई, जो कृतियाँ बनी, जो कुछ भी अच्छा निर्मित हुआ उसका कारण एकान्त था। एकान्त मिला तो निर्माण हुआ। जो लोग खुद को उस कार्य में खपाते हैं उन्हीं को सिद्धि मिलती हैं। एकान्त में जीतना एकाग्रता पूर्वक कार्य होता है और जितना अच्छा मनचाहा होता हैं उतना सब के बीच रहकर नहीं हो पाता।
लोक संपर्क से हानि पहुँचने की अपरिपक्व हालत में ज्यादा संभावना रहती है। इसीलिए लोगों से दूर रहना ही हितावह है। जब पक्का विश्वास हो जाय लोक सम्पर्क लोगों की भीड़ से मेरां कुछ भी बिगड़ेगा नहीं तभी लोकसंपर्क करना योग्य माना गया है। इसी कारण से दशपूर्वी को जिनकल्प स्वीकारने के लिए निषेध किया है। क्योंकि जंगल में रहकर वे अकेले साधना करेंगे। उससे उन्हें अकेले को लाभ होगा, परन्तु लोगों के बीच रहकर अधिक परोपकार कर पायेंगे तो लाभ भी अधिक होगा, सम्राट के जीवन की दोपहरी बीत गई थी। जीवन उतार पर था। शक्ति दिनोंदिन कम होती जाती थी। उसके प्राण संकट में थे, मृत्यु अपने संदेश भेजने लगी थी। मनुष्य जो बोता है वही फसल उसे काटनी पड़ती है। विष के बीज बोते समय नहीं फसल काटते समय ही कष्ट देते हैं। जो लोग बीज में उस दुःख को देख लेते है, वे बोते ही नहीं। वह सम्राट भी अपनी बोई फसलों के बीच ही में खड़ा था। उनसे बचने के लिए आत्मघात तक का विचार करता था, लेकिन सम्राट होने का मोह और भविष्य में चक्रवर्ति होने की आशा, जीवन तो खो सकता था लेकिन सम्राट होना छोड़ना उसकी शक्ति के बाहर था, वह इच्छा ही तो उसका जीवन थी। एक दिन वह अपीन चिंताओं से पीछा छुड़ाने के लिए पर्वतों की हरियाली की ओर चल पड़ा। चिता से भाग सकते हैं लेकिन चिंता से कभी नहीं क्योंकि चिता बाहर और चिंता भीतर है, वह सदा साथ ही है। आप जहाँ है वहाँ है। स्वयं को परिवर्तित किये बिना छुटकारा नहीं है।
वह घोड़े पर भागा जा रहा था। अचानक बांसुरी के मधुर स्वर उसने
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