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लिया है सतत् उसका खयाल रखो। दो संत थे। लोगों से कोसों दूर रहने वाले थे। एकान्त में रहकर साधना करने वाले थे। धीरे-धीरे लोगों को पता चला तो लोगों के झुंड के झूड उनके पास आने लगे। ये चमत्कार को नमस्कार है। लोग सोचते है कि ये दोनों अच्छे साधक है अगर इनके आशीर्वाद मिल गये तो अपना काम हो जाएगा। ये दुनिया बिना स्वार्थ के कुछ नहीं करती, कहीं नहीं जाती, जब कुछ लगे कि यहाँ अपना काम बनेगा तो आधीरात भी पहुंचेगी। तो उन दोनों के पास भीड़ जमा होने लगी। लोगों की इतनी भीड़ से वे तो दुःखी-दुःखी हो गये। इस भीड़ को रोकना कैसे? दुकान में ग्राहक न आये तो लोग बोर हो जाते हैं, परन्तु योगी के वहाँ लोग आ जाये तो वे कंटालते हैं। खेल के मैदान में खिलाड़ी खेलते हैं किन्तु अगर दर्शक ही न आये तो उनको भी खेलने का मूड नहीं आता। परन्तु यहाँ कोई आये तो उनका मूड खराब होता है, वे तो माला गिनते है कि ये लोग कब यहाँ से ऊठे और जायें। योगियों के व्यक्तित्व में ही ऐसा आकर्षण होता है कि वे किसी को बुलाते नहीं है कि तुम आओ, फिर भी बिन बुलाये लोग खिंचे चले आते हैं फिर उनके मधुर व्यवहार और गुणाकर्षण के कारण बार-बार आने को मन करता है। दोनों योगियों ने लोगों की भीड़ को रोकने का एक उपाय सोचा, कि कभी ऐसा करेंगे।
एक बार कई लोगों की भीड़ जमा हुई थी तब दोनों जोर-जोर से झगड़ा करने लगे, गालियाँ बकने लगे, मारा-मारी करने लगे। उन दोनों योगियों का व्यवहार देखकर लोग सोच रहे है कि..... अपने से भी बड़ा संसार इनका है। ये लोग भी अपनी तरह ही लड़ रहे है, फिर इनमें और अपने में फर्क ही क्या हम तो फिर भी अच्छे। क्योंकि हम तो जमीन-जायदाद, माल-मिलकत, दुकान-मकान, सोना-चाँदी के लिए लड़ते हैं, जबकि ये लोग चीथड़े के लिए लड़ रहे हैं।
ये तो एक नंबर के ढोंगी है, हमें तो शान्ति का उपदेश देते हैं। धत् अब दुबारा यहाँ कभी नहीं आयेंगे। दो-पाँच दिनों में यह बात चारों तरफ फैल
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