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है, वहाँ जन्म की पीड़ा नहीं है रोग की पीड़ा नहीं है, खाने पीने की व्यापार धंधे की चिंता नहीं हैं, वृद्धत्व का डर नहीं है। इतनी अनुकूलताएँ होते हुए भी वहाँ दान नहीं, शील का पालन नहीं, तप की बात नहीं, न सामायिक न प्रतिक्रमण की क्रियाएँ। नरक गति जली हुई जमीन के समान है। वहाँ दुःख ही दुःख, दुःख देने की सामग्रियाँ, भयंकर ठंड और गरमी, जमीन शूलयुक्त तलवार, भाला, बरछा, छुरी सब अंदर से निकलते है, परमाधामी की जालिम पीड़ाएँ, वहाँ पैदा होने वाले जीवों में परस्पर वैर, जन्म भी पीडा कारक और जीवन भी पीडा कारक, पलपल मरने की इच्छा, ऐसे वातावरण में धर्म की बात ही कहाँ ? तिर्यंच गति ऊखड़ भूमि के समान है। पराधीनता का हिसाब नहीं है, विवेक का नामोनिशान नहीं है, घाँस–पानी सामने ही हो, भूख तृषा भी हो फिर भी खा पी नहीं सकते, क्योंकि बंधे हुए होते है । पेट दुःखता हो फिर भी हल में जूतना पड़ता है, बैलगाडी को खींचना पड़ता है, फिर अंत में कसाई की छुरी गरदन पर चलती है, कितनी परधीनताएँ है। पशु में गुण विकाश की संभवना कहाँ ? धर्माराधना से विशुद्ध पुण्य बंध करने की उनके पास क्षमता कहाँ ? मनुष्यगति फलद्रुम जमीन जैसी है। इसगति में विवेक भी है, आराधना करने की शक्ति भी है, यहाँ संपत्तिदान भी है, ज्ञानदान भी है, सुपात्रदान भी है, बह्मचर्य की संभावना भी है, तप और उग्रतप कर पाने की शक्ति भी है, धर्मध्यान और शुक्लध्यान भी सुलभ है। प्रचंड पुण्योपार्जन और कर्मनिर्जरा भी यहाँ है। यह नश्वर शरीर अनश्वर पद की प्राप्ति कराता है । यह शरीर मोक्ष का साधन है इसका मतलब यह नहीं कि उसको सम्हाल कर ही रखा जाय । शरीर धर्म करने का साधन है इसका यह मतलब नहीं है कि, इसे जरा भी तकलिफ न दें । कोयला रसोई का प्रथम साधन है तो क्या उसे सम्हालकर ही रखना ? नहीं रसोई बनानी हो तो उसे चूल्हे में डालना पड़ता है। शरीर भी कोयले के स्थान पर है। आत्म शुद्धि करनी हो तो सबसे पहले उसे ही साधना की भट्टी में डालना पड़ेगा। तो शरीर की आशक्ति को दूर करने के लिए शरीर की अशुचिता का चिंतन करें।
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