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ही पीठ महापीठ ने स्त्री वेद का बंध किया। वहाँ से मरकर वे देवलोक में गए
और देवलाक में से च्यवकर ब्राह्मी व सुंदरी के रूप में स्त्री रूप में पैदा हुए। पीठ और महापीठ के पास भी गुणानुराग की कमी रह गई तो उन्हे अगले जन्म में स्त्री रूप में जन्म लेना पड़ा । स्त्रीयाँ स्वाभाविक ही इर्ष्याखोर होती है। गुण के द्वेषी और इर्ष्यालु को स्त्री अवतार देकर कर्मसत्ता मानो कह रही है कि तुम्हें इर्ष्या अच्छी लगती थी न! लो अब करो इर्ष्या । स्त्री का सहज स्वभाव ही ऐसा है कि वह इर्ष्या बिना रह ही नहीं सकती। इर्ष्या मतलब स्त्री और स्त्री मतलब इर्ष्या । इर्ष्या हो वहाँ गुणानुराग पैदा नहीं हो सकता | धार्यो रागो गुणलवेऽपि गुणों के स्वामि बनने के लिए छोटे गुण भी प्राप्त करने चाहिए। एक-एक रूपया बचाने से जैसे करोड़पति बना जाता है वैसे छोटे-छोटे गुणों से गुण सम्राट बना जाता है। क्योंकि दुनिया बहुलतया दोषों से भरी है। ऐसी परिस्थिति में छोटा सा भी गुण दिख जाय तो खुश होकर नाचने जैसा है। मारवाड़ में केर का छोटा सा वृक्ष भी मिल जाय तो धुप से संतप्त मुसाफिर कैसे प्रसन्न हो जाता है? गुणानुरागी पुरूष भी वैसे ही प्रसन्न हो उठता है। गुणानुराग बिना के गुण अहंकार पोषक ही बनते हैं अगर दूसरों के गुणों के प्रति प्रेम न हों। सेवा-ज्ञान-ध्यान इत्यादि गुणपाने के लिए अहंकारी भी प्रयत्न करता है। क्योंकि वह गुणों को प्राप्त करेगा। तभी दुनिया में कोई उसके भाव पूछेगा। ज्ञान हो तो पंडित ..... करते आयेंगे। ध्यान हो तो कहेंगे ये तो बहुत ध्यानी है (ध्यानी बाबा है) उनसे कुछ समझने को मिलेगा। सेवा का गुण होगा तो कहेंगे कि सचमुच यह आदमी सोने जैसा है। किसी के भी काम के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे मीठे वचन किसे अच्छे नहीं लगेंगे? धन का अहंकार फिर भी पहचाना जा सकता है परन्तु गुणों का अहंकार पहचानना मुश्किल है। ऐसे अहंकार को भी गलाने-पीघलाने वाला गुणानुराग है । गुणानुराग बिना के गुण अंहकार पोषक है। दुसरे का दान अगर मुझे अच्छा नहीं लगता हो तो मेरे दान की कीमत नहीं है। दूसरे का तप, सेवा, ज्ञान, ध्यान, भक्ति आदि के समाचार सुनकर हृदय खुशी से झूम न उठे तो मेरे तप सेवा, ज्ञान, ध्यान में धूल
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