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धार्यो रागो गणलवेऽपि
"थोडे /छोटे से गुण पर भी प्रेम रखना" गुण पक्षपात अन्य में विद्यमान गुणों को खींचने का श्रेष्ठ चुम्बक है। जिस प्रकार वटवृक्ष के छोटे से बीज में विशाल वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार एक गुणानुराग में सर्वगुणों को विकसित करने की ताकत मौजूद है।
गुणानुराग में एक नये पैसे का भी खर्च नहीं है फिर भी उसकी साधना अत्यन्त कठिन है। कहा भी गया है गुणी च गुणरागी च सरलो विरलो जनः गुणवान और गुणानुरागी तो कभी कभार ही देखने को मिलते हैं। व्यक्ति हजारों रूपयों का त्याग कर सकता है, दान दे सकता है, दीर्घ काल तक तप कर सकता है- ज्ञान की श्रेष्ठत्तम आराधना कर सकता है परन्तु दूसरों में रहे हुए गुणों की प्रशंसा करना ऐसे महात्मा पुरूषों के लिए भी अत्यन्त कठिन हैं यदि गुणानुराग की प्रवृत्ति का जीवन में विकास नहीं करेंगे तो इस गुण को भस्मीभूत करने वाला इर्ष्या दोष अपने उपर हावी हुए बिना नहीं रहेगा। इर्ष्यालु कभी दूसरे के उत्थान को देख नहीं सकता है, दूसरे के पतन में ही उसे मजा आता है। संसार से विरक्त होकर वज्रनाभ चक्रवर्ती ने भागवती दीक्षा अंगीकार की। उनके साथ पीठ-महापीठ और बाहु सुबाहु ने भी संयम स्वीकार किया। रत्नत्रयी की साधना-आराधना में आगे बढ़ते हुए वज्रनाभ मुनि 500 शिष्यों के गुरू और आचार्य बने । आचार्य वज्रनाभ अपने शिष्यों का सुंदर ढंग से योगक्षेम करने लगे। पीठ और महापीठ शास्त्र के अध्ययन अध्यापन में मग्न रहने लगे। बाहु और सुबाहु में वैयावच्च का विशिष्ट गुण था। वे अपने गच्छ की गोचरी पानी आदि से खुब-खुब भक्ति करने लगें। गच्छ की भक्ति में उन्होने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन की अपूर्व भक्ति से खुश होकर गुरूदेव ने उन दोनों की बहुत-बहुत प्रशंसा की। बाहु व सुबाहु की प्रशंसा सुनकर अन्य सभी खुश हुए, किंतु पीठ और महापीठ के इर्ष्या होने लगी। वे मन ही मन सोचने लगें,
वैयावच्च करने वालों की इतनी प्रशंसा और हम इतना-इतना स्वाध्याय करते हैं हमारी कुछ भी प्रशंसा नहीं। बस, बाहु सुबाहु के प्रति रहे इर्ष्याभाव के कारण
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